इश्क की आग
ज़ख्मों को आंसुओं के मरहम से भरते चले गए
बुझने न दी इश्क की आग, जलते चले गए
उदास आँखों में मुहब्बत के ख़्वाबों को सजा
तन्हाईयों के पाँव से बेपरवाह कुचलते चले गए
हर एक ख्वाहिश को गर्क का जामा पहना कर
ख़ुशी के हर्फ़ से दिल के पन्ने सजोते चले गए
दर्द ए मुहब्बत के ताबीज को बांध बाजू में वक़्त के
मुट्ठी में कैद कर दर्द, इश्क-ए-कलमा लिखते चले गये
तकदीर के पृष्ठ पर प्यार के अफ़साने छोड़कर
बन अजनबी नस्तर-ए-नज़र से कत्ल करते चले गए
तीरगी का जंगल सजा हर एक राह पर “गुंजन”
याद में बेगैरत मुहब्बत की चिराग जलाते चले गए ।
—गुंजन अग्रवाल
वाह किया बात है.
बढ़िया ग़ज़ल !