एक अनुभूति!
माहौल में कुछ अजीबियत कुछ सूनापन है
आज खाली खाली मेरे ही मन का दर्पण है
हवाएं बह रही हैं, रात ढल चुकी है
खामोशी की चिंगारी लबों पर रुकी है
अभी कुछ देर से सांसें गिन रहा हूँ
कभी चल रही हैं कभी थम रही हैं
अकस्मात् कैसा ये बदलता जीवन है
आज खाली खाली मेरे ही मन का दर्पण है
आज अँधेरा बहुत ही घना है
जाने किस मिटटी से आसमां बना है
आज तारों ने ओढ़ी है खामोशी
बादलों के परों पर चुपचाप मदहोशी
सिहरती ठिठकती झांझ सुनाई देती हैं
ना जाने कैसा हो रहा सम्मोहन है
आज खाली खाली मेरे ही मन का दर्पण है
पर्वत के शिखरों में सन्नाटा छाया है
देखो संदेसा ले झोंका सा आया है
पेड़ों की ठिठकन से नींद नदी की खुली
जैसे फिज़ा में है अलसियत सी है घुली
झड़ते कुछ पत्तों की आवाज ने चीरा
सो चुकी घासों का सध चूका सा सपन है
आज खाली खाली मेरे ही मन का दर्पण है
___सौरभ कुमार
आभार सर जी
कविता अच्छी लगी.