उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 38)
34. सखी से मंत्रणा
दिल्ली के शाही हरम में गुजरात की जबरन अपहृत की गई राजकुमारी देवलदेवी का कक्ष। अब वहाँ साजो सम्मान की हर वस्तु उपलब्ध है जो शाही हरम की शहजादियों और बेगमों के कक्षों में उपलब्ध रहती है। देवलदेवी कक्ष के फर्श पर पड़ी कालीन पर टहल रही है, टहलने से उनके चंद्रमा की स्वर्ण रश्मियों से पैर कालीन में धँस-धँस जाते हैं। कक्ष में एक ओर खड़ी दासी प्रमिला, राजकुमारी को टहलते हुए देख रही है। प्रमिला, देवलदेवी को देखते हुए बोली, ”क्षमा करें राजकुमारी, आपने हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।“
”प्रमिला, मैं सोच रही हूँ तुझे क्या उत्तर दूँ और तुझे कैसे समझाऊँ?“
”कहीं राजकुमारी भी अपनी माता महारानी कमलावती के समान ऐश्वर्य और दिल्ली की मलिका बनने के बदले समर्पण तो नहीं कर चुकी।“
राजकुमारी तेज स्वर में ”प्रमिला।“
प्रमिला सिर झुकाते हुए, ”क्षमा करें राजकुमारी।“
” ‘समर्पण’, प्रमिला संभवतया समय हमसे ‘समर्पण’ की ही माँग कर रहा है।“
”पर राजकुमारी आप समर्पण का अर्थ समझती हैं, आप सुल्तान की बेगम बनना चाहती हैं।“
”नहीं प्रमिला, यह समर्पण सुल्तान के सम्मुख न होगा। हमें अपने अपमान के प्रतिशोध के लिए सुअवसर निर्मित करना पड़ेगा। इस सुअवसर के निर्माण के लिए हम शहजादे खिज्र खाँ के सम्मुख समर्पण करेंगे।“
प्रमिला तनिक सोचते हुए, ”ओ… अब समझी। किंतु सावधानी से राजकुमारी, यह खेल अत्यंत भयानक है।“
देवलदेवी हँसते हुए, ”प्रमिला जो खेल भाग्य ने हमारे साथ खेला है कदाचित उससे तो कम ही भयानक होगा। तुम्हारी मेरे पास नियुक्ति शहजादे की कृपा से ही संभव हो पाई है, अन्यथा तू रानी मलिका-ए-हिंद के पाँव दबाती-दबाती अब तक शिथिल हो चुकी होती। अच्छा प्रमिला कोई और सूचना?“
”हाँ राजकुमारी, एक बुरी सूचना है, यादव युवराज मलिक काफूर को देवगिरी का विध्वंस करने से रोकने में असमर्थ रहे।“
”ओह, पता नहीं विधाता ने हमारे भाग्यों में क्या लिख दिया है, पता नहीं युवराज हमारा बिछोह कैसे सहन कर पाए होंगे?“
”और आप राजकुमारी? आपके चेहरे पर उनके बिछोह के लक्षण खोजने पर भी प्राप्त नहीं होते, क्या आप उन्हें प्रेम नहीं करती? पर यह भी सत्य है कि आपने उनसे गंधर्व परिणय किया था।“
”प्रमिला हमने उनसे प्रेम किया, मन से उन्हें वरण भी कर लिया, पर इस समाज में स्त्री के प्रेम का कोई मूल्य नहीं। वह अब इंसान नहीं एक निर्जीव वस्तु बनकर रह गई है। जिसका लोग व्यापार करने लगे है। तू सत्य कहती है प्रमिला, मेरे मुख से तू अब यादव युवराज के प्रेम के लक्षण खोज नहीं पाएगी। धर्म की पुनस्र्थापना के निमित्त सुअवसर निर्मित करने हेतु हमने अपने मुख से उनके प्रेम लक्षणों को नोंचकर फेंक दिया है। किंतु हमारा हृदय सरलता से उन्हें भुला न सकेगा, हमारा हृदय तो अब तक अपने प्रथम प्रेम को भी भुला न सका है।“
”क्या कहा राजकुमारी प्रथम प्रेम? क्या आपने युवराज शंकर से पूर्व भी किसी से प्रेम किया था? कब? हम तो सदा आपके साथ ही रहे, फिर आपका प्रेम हमसे किस प्रकार छिप गया?“
”हाँ प्रमिला, हमारा प्रथम प्रेम कोई और था। प्रथम दृष्टि का प्रेम। बस हम उसी दिन मिले और कुछ पलों में बिछड़ गए। वह हमारे बालपन की घटना थी। सेनापति इंद्रसेन के साथ संभवतया वह मातृभूमि अन्हिलवाड़ की रक्षा करते हुए किशोरावस्था में ही वीरगति को प्राप्त हुए।“
”ओह! राजकुमारी क्षमा करें, हमने आपका हृदय दुखी कर दिया। पर उन वीर का नाम क्या था?“
”कोई बात नहीं प्रमिला, हमारा हृदय का दुखी होना तो अब बस एक कौतुक बनकर रह गया है। अरी हाँ, तू उनका नाम पूछ रही थी, मैंने भी उनसे पूछा था। पर उनका कोई नाम ही नहीं था, फिर हमने ही रखा था ‘धर्मदेव’। अच्छा सुना कोई और सूचना?“
”हाँ राजकुमारी, मलिक काफूर के साथ देवगिरी के महाराज और गुजरात के सूबेदार अल्प खाँ दिल्ली पधार रहे हैं।“
”किस हेतु? कोई विशेष प्रयोजन है क्या?“
”हाँ, दिल्ली में उत्सव की तैयारियाँ हो रही हैं।“
”उत्सव, वह किसलिए?“
”शहजादा खिज्र खाँ के विवाह का उत्सव।“
”अरे किसके साथ? कहीं मैं तो…?“
”नहीं-नहीं राजकुमारी, आप नहीं शहजादे का विवाह गुजरात के सूबेदार अल्प खाँ की पुत्री के साथ हो रहा है।“
”ठीक है प्रमिला, अभी जाकर विश्राम करो पर स्मरण रहे हमें सुअवसर निर्मित करना है। किंतु सावधानी पूर्वक।“
”जो आज्ञा राजकुमारी।“ इतना कहकर प्रमिला वहाँ से चली जाती है और राजकुमारी देवलदेवी कालीन पर विचारमग्न टहलने लगती है।