आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 13)

ये थे मेरे एच.ए.एल. के कम्प्यूटर विभाग के संगी-साथी। विभाग के बाहर के भी अनेक सज्जनों से मेरा घनिष्ट परिचय था। उन सबकी सूची तो बहुत लम्बी हो जाएगी और सम्भव है कि कई नाम मैं भूल भी जाऊँ। इसलिए उनके नामों का उल्लेख नहीं करूँगा। इसके लिए उनसे क्षमा चाहता हूँ। लेकिन अपने आगरा के चार मित्रों के बारे में अवश्य लिखूँगा, जिनके साथ मेरे अच्छे सम्बंध थे और जो मेरे पड़ोसी भी थे।

उनके नाम हैं सर्वश्री मदन मोहन वर्मा, योगेश कुमार शर्मा, विजय कुमार सिंह और देवेन्द्र कुमार जैन। ये सभी आगरा के हैं और इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद एच.ए.एल. में सर्विस कर रहे हैं। सभी एक साथ डिजायन विभाग में थे, जहाँ पुर्जों की डिजायन तैयार की जाती है। वर्मा जी से मेरा परिचय अपने मित्र श्री दिवाकर खरे के बड़े भाई श्री प्रभाकर खरे के माध्यम से हुआ था, जिनका जिक्र ऊपर कर चुका हूँ। सबसे पहले वर्मा जी ने ही मुझे इन्दिरा नगर में कमरा दिलवाया था। इनके साथ मेरी बहुत घनिष्टता थी। कई बार हम मिलकर खाना बनाते-खाते थे। ये सभी इन्दिरा नगर के ए-ब्लाॅक में पास-पास के घरों में रहते हैं। वहीं शर्मा जी ने मुझे भी एक कमरे का मकान किराये पर दिलवाया था, जिसमें मैं करीब डेढ़ साल रहा था।

वर्मा जी का विवाह मेरे सामने ही हुआ था, परन्तु उनकी शादी में मैं शामिल नहीं हो सका था। वास्तव में मैं उनकी बारात में शामिल होने ही लखनऊ से आगरा गया था, परन्तु दुर्भाग्य से उससे पिछली रात को ही मेरे 8 दिन के भतीजे (बड़े भाई साहब श्री महावीर प्रसाद के नवजात पुत्र) की मृत्यु हो गई थी। इसी शोक के कारण मैं वर्मा जी के विवाह में नहीं जा सका। इसका मुझे आज तक दुःख है।

पहले जब मैं वाराणसी से लखनऊ आता था, तो कई बार वर्मा जी या शर्मा जी के यहाँ ही ठहरता था। लेकिन जब से कानपुर आया हूँ, तब से मिलना कम हो गया है, क्योंकि मैं घंटे-दो घंटे के लिए ही लखनऊ जाता हूँ और काम पूरा होते ही उसी दिन वापस कानपुर आ जाता हूँ।

लखनऊ में रहते हुए मैं संघ कार्य में अधिक गम्भीरता से लगा। ज.ने.वि. में मैं शाखा अवश्य नियमित जाता था, परन्तु उसके अलावा और कोई संघ कार्य नहीं किया था। लेकिन लखनऊ आने पर मुझे संघकार्य में जुटने का पूरा अवसर मिला। वहाँ के संघ कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में मैं कैसे आया, इसका जिक्र ऊपर कर चुका हूँ। एच.ए.एल. में मेरे ही सेक्शन में श्री विष्णु कुमार गुप्त संघ के प्रमुख कार्यकर्ताओं में से एक थे और इनके अलावा श्री कृष्णचन्द्र पंत भी स्वयंसेवक थे। इसलिए संघ की सभी सूचनाएँ मेरे पास तत्काल पहुँच जाती थीं और विष्णु जी के साथ स्कूटर पर जाकर मैं सभी कार्यक्रमों में शामिल होता था। संघ के अधिकांश कार्यक्रम रविवार अथवा किसी अन्य अवकाश के दिन रखे जाते हैं, इसलिए हमें उन कार्यक्रमों में शामिल होने में कोई कठिनाई नहीं होती थी।

हमारी शाखा भूतनाथ मंदिर के पास पानी की टंकी के सामने से बी-ब्लाॅक चौराहे की तरफ जाने वाली मुख्य सड़क पर एक तिकोने पार्क में लगती थी। हमारी शाखा का नाम दुर्गा शाखा था और नगर का नाम दयानन्द नगर था, जिसमें समस्त इंदिरा नगर, सर्वोदय नगर और आस-पास का क्षेत्र भी शामिल था। हमारी शाखा इस नगर की सबसे प्रमुख और नियमित लगने वाली शाखा थी। हमारे नगर संघ चालक थे श्री यशोदा नन्दन माहेश्वरी, जो लोहे के फाटक, खिड़की आदि बनाया करते थे। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ चुके थे और वहाँ की काफी बातें बताया करते थे। वे वनस्पति विज्ञान के बहुत अच्छे जानकार थे और किसी भी पेड़-पौधे को दूर से देखकर तत्काल ही उसका नाम और गुण बता देते थे। उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था। वे प्रतिदिन 10 सूर्य नमस्कार करते थे और तब शाखा आते थे। जब तक मैं और वे लखनऊ में रहे, तब तक हम नियमित शाखा में आया करते थे। फिर मेरा स्थानांतरण वाराणसी हो गया और हमारा साथ छूट गया। वे मेरे विवाह में शामिल होने लखनऊ से आगरा भी आये थे। तभी उनके अन्तिम दर्शन हुए थे। बाद में वे अपने पुत्र के पास दिल्ली चले गये, जो टाइम्स आॅफ इंडिया अखबार में प्रसार व्यवस्थापक (सर्कुलेशन मैनेजर) थे। कुछ समय बाद सुना गया था कि दिल्ली में जल्दी ही उनका स्वर्गवास हो गया।

हमारे नगर कार्यवाह प्रारम्भ में श्री गोविन्द राम अग्रवाल थे। बाद में क्रमशः कई लोग नगर कार्यवाह बने, उनमें प्रमुख नाम है श्री प्यारेलाल कनौजिया का। वे बाद में दो बार नगर पार्षद भी चुने गये थे। हमारी शाखा के प्रमुख स्वयंसेवकों के नाम हैं- सर्वश्री दुर्गा प्रसाद पाण्डेय (जो बाद में नगर पार्षद भी बने), नन्दलाल राजानी, जय पाल सिंह, राजेन्द्र गौतम, राजेन्द्र सिंह बघेल (जो बाद में विद्या भारती में विद्यालय निरीक्षक और उससे भी ऊँचे पदों पर पहुँचे), टी. पोपटानी आदि। मेरी इन सबके साथ पर्याप्त घनिष्टता थी।

हमारी शाखा के अलावा दयानन्द नगर की अन्य शाखाओं से जुड़े हुए जो प्रमुख संघ कार्यकर्ता थे उनमें श्री राम उजागिर सिंह का स्मरण न करना अक्षम्य होगा। वे उस समय सरस्वती शिशु मंदिर के प्रधानाचार्य थे, जो एक किराये के मकान में चलता था। अपने परिश्रम से उन्होंने उस विद्यालय को न केवल आत्मनिर्भर बना दिया था, बल्कि एक जगह रियायती जमीन खरीदकर उस पर विद्यालय का अपना भवन भी बना लिया था। मैंने अब तक जिन संघ कार्यकर्ताओं के साथ कार्य किया है, उनमें श्री राम उजागिर सिंह जी का नाम सर्वश्रेष्ठ कार्यकर्ताओं में भी काफी ऊपर लिखना चाहूँगा। उनके साथ मेरे अनेक संस्मरण हैं। सन् 1983 में हम प्रयाग के शीत शिविर में गये थे। वहाँ उनके साथ उनके विद्यालय का एक छात्र भी गया था। उस विद्यार्थी के साथ राम उजागिर जी का व्यवहार ऐसा पितृवत् था कि मैं उस विद्यार्थी को उनका पुत्र ही समझता रहा। काफी बाद में मुझे पता चला कि वह उनका पुत्र नहीं, छात्र था। ऐसे आचार्य की महानता का वर्णन कौन कर सकता है?

एक बार इन्दिरा नगर के सरस्वती शिशु मंदिर की आ£थक सहायता के लिए एक कार्यक्रम ‘गीत रामायण’ का आयोजन किया गया था। उस कार्यक्रम में शेखर सेन और कल्याण सेन नामक संगीतकार बन्धुओं ने स्वरचित गीतों के माध्यम से सम्पूर्ण रामायण को साकार कर दिया था। इस कार्यक्रम के टिकट बेचने और कार्यक्रम की व्यवस्था में मैंने भी थोड़ा बहुत सहयोग किया था, लेकिन मुख्य परिश्रम राम उजागिर जी का ही था। मैंने इस कार्यक्रम के अवसर पर एक स्मारिका का सम्पादन भी आचार्य श्री अवधेश कुमार सिंह के साथ मिलकर किया था। यह कार्यक्रम आशा से अधिक सफल रहा और शिशु मंदिर की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गयी। श्री राम उजागिर सिंह जी का स्थानांतरण बाद में बस्ती जिले में हो गया था। उनसे बाद में भी मेरी कई बार मुलाकात हुई है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में एच.ए.एल. में सेवा करने वाले कई अन्य व्यक्ति भी सक्रिय थे। उनमें प्रमुख नाम हैं- सर्वश्री प्रभाकर भाटे, अशोक राय, सरदार मनजीत सिंह तथा जगदीश नारायण। इनमें श्री भाटे अधिकारी थे और अन्य सभी कर्मचारी वर्ग के थे। इनमें से जगदीश जी जल्दी ही एच.ए.एल. छोड़ गये थे और उत्तर प्रदेश सरकार के किसी विभाग में जूनियर इंजीनियर हो गये थे। एक बार रेलगाड़ी में वाराणसी से लखनऊ आते समय प्रतापगढ़ के पास उनसे भेंट हुई थी। अशोक राय जी भारतीय मजदूर संघ के नेता थे और हालांकि एच.ए.एल. में उनकी यूनियन का अधिक प्रभाव नहीं था, फिर भी वे काफी सम्मानित थे। सरदार मंजीत सिंह भी भारतीय मजदूर संघ में सक्रिय थे और नियमित रूप से संघ के कार्यक्रमों में आते थे।

मंजीत सिंह जी के एक पुत्र हैं, जिनका नाम है ‘लखवीर सिंह’। मैंने एक दिन उससे पूछा कि आपके नाम का क्या अर्थ है, तो वह नहीं बता सका। तब मैंने बताया कि इसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ है- ‘वह जो केवल देखने में ही वीर हो।’ यह अर्थ नकारात्मक है। दूसरा और सही अर्थ है- ‘वह जो लाखों लोगों के बराबर वीर हो।’ गुरु गोविन्दसिंह जी ने कहा था- ‘सवा लाख ते एक लड़ाऊँ’ अर्थात् एक-एक सिख वीर में सवा लाख सैनिकों वाली मुगलों की सेना से लड़ने की हिम्मत और ताकत है। इसी अर्थ में ‘लखवीर’ शब्द बना है। अपने नाम का यह अर्थ जानकर वह आश्चर्यचकित हो गया था।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 13)

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की कड़ी को आद्यान्त पढ़ा। आपका देशभक्त संस्था आर एस एस में निष्ठा एवं समर्पण अभिनंदनीय है। मैंने भी सन १९७० में आर्य समाज के संपर्क में आकर उसका अनुगमन किया। आज मुझे अपने इस निर्णय पर संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है। आज की कड़ी में प्रस्तुत विवरण भी पूर्व की तरह रोचक एवं ज्ञानवर्धक है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      प्रणाम, मान्यवर ! आभार !!

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