विश्वास
जब देखती हूँ
आज शिखर पर पहुँच कर
अपना गुजरा हुआ जमाना
तो मन आज भी
खोल कर रख देता है
एक एक रिस्ता हुआ घाव
जिस की टीस अब भी ताजे दर्द का
अनुभव करा जाती है
लेकिन आज
वर्षों बाद हमारी कॉम की
मेहनत रंग लाई है
आज वो दूसरे की तारीफ की
मोहताज नहीं उसे अपने आप को
सराहना आ चुका है
आज नारी सपने भी खुद देखती है
और रंगों का चयन भी
अपने मुताबिक करती है
अब उसे विश्वास है अपने पर कि
उसकी रणनीति ध्वस्त नहीं होगी
कर्मठता ने अपने जूते
उम्मीदों ने अपना ताज जो
पहना दिया है
उसके सशक्त मस्तक पर
जो बिकाऊ नहीं है ………
क्योंकि
उसने समझ ली है, अपने विश्वास से
भरे मस्तक की कीमत
और कर लिया है
विश्वास खुद पर सदा के लिए ॥
कल्पना मिश्रा बाजपेई
बहुत ख़ूब !
आभार विजय कुमार सिंघल जी
BEHTREEN
शुक्रिया गुंजन जी
bahut sundar
आभार निवेदिता चतुर्वेदी जी