ग़ज़ल
तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ
लगी लत लिख रहा.हूँ
दीवारें वालिदा को
पिता छत लिख रहा हूँ
बड़ों से झुक के मिलना
लियाकत लिख रहा हूँ
ये कत्लेआम दहशत
कयामत लिख रहा हूँ
मुहब्बत से ही आदम
सलामत लिख रहा हूँ
बढ़े जो दाम रोटी
कसालत लिख रहा हूँ
बहस घर वापसी पर
सियासत लिख रहा हूँ
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अनन्त आलोक
बहुत खूब .