आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 19)

मैं एच.ए.एल. में बहुत खुश और संतुष्ट था। परन्तु तभी कुछ ऐसी घटनाएँ घट गयीं कि एच.ए.एल. से मैं बुरी तरह रुष्ट हो गया। हुआ यह कि भारत सरकार की ओर से ब्रिटेन में पढ़ाई हेतु काॅमनवैल्थ स्काॅलरशिप के लिए आवेदन माँगे गये थे। मैंने उसमें आवेदन भेजा था। उसमें एक शर्त यह थी कि आवेदनकर्ता को अपने वर्तमान नियोक्ता से अनापत्ति प्रमाणपत्र (No Objection Certificate) जमा करना होगा। मैंने अपना आवेदन तो सीधे भेज दिया और एच.ए.एल. से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेने के लिए प्रार्थनापत्र दे दिया। मुझे उम्मीद थी कि इंटरव्यू के समय तक मुझे प्रमाणपत्र मिल जाएगा। कुछ इसलिए भी कि इस पढ़ाई में एच.ए.एल. का एक पैसा भी खर्च नहीं होना था।

परन्तु एच.ए.एल. के कार्मिक विभाग का मैनेजर बहुत दुष्ट था। उसने मेरे प्रार्थनापत्र को जाने कहाँ छिपा दिया कि इंटरव्यू का काॅल आ गया, परन्तु प्रमाणपत्र नहीं मिला और न कोई जवाब ही मिला। मैंने उस विभाग में जाकर पूछताछ की तो वे टालमटोल करने लगे और आँय-साँय बोलने लगे। तब मैंने ऊपर जनरल मैनेजर (महा प्रबंधक) से शिकायत करने का निश्चय किया। मेरे विभाग के मुख्य प्रबंधक श्री आर.के. तायल यहाँ मेरी सहायता करने के बजाय मेरी शिकायत को ही रोकने की कोशिश करने लगे। मुझे बड़ा क्रोध आया। मुझे बिना अनापत्ति प्रमाणपत्र लिये ही इंटरव्यू देने दिल्ली जाना पड़ा। वहाँ इंटरव्यू तो हो गया, परन्तु उन्होंने अनापत्ति प्रमाणपत्र माँगा, तो मैंने कह दिया कि मैं जाते ही 2-3 दिनों में भेज दूँगा। इंटरव्यू से लौटकर मैंने फिर भागदौड़ की। काफी कोशिशों से लगभग 8 दिन बाद मुझे वह प्रमाणपत्र मिला। मैंने तत्काल उसे दिल्ली भेजा, लेकिन बेकार गया, क्योंकि तब तक वे अपना चयन कर चुके थे। इस अनुभव के बाद मेरा एच.ए.एल. से मोह पूरी तरह भंग हो गया और मैं पहला मौका मिलते ही एच.ए.एल. छोड़ने का निश्चय कर चुका था।

ऐसी ही एक घटना श्री राजीव किशोर के साथ घट गयी थी। उनका चयन कम्प्यूटर सोसाइटी आॅफ इंडिया की ओर से जापान में 6 माह की ट्रेनिंग हेतु हो गया था, परन्तु काफी भाग दौड़ करने के बाद भी उन्हें एच.ए.एल. से अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं मिला। उन्होंने इसके लिए दिन-रात एक कर दी थीं और बहुत दौड़-धूप की थी। मैंने तो उनकी तुलना में कुछ भी नहीं किया था। फिर भी उन्हें अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं मिला, तो नहीं ही मिला और उनके हाथ से जापान में ट्रेनिंग पाने का दुर्लभ अवसर फिसल गया। ऐसी स्थिति में कौन एच.ए.एल. में रहना चाहेगा?

उन्हीं दिनों अर्थात् सन् 1987 में एच.ए.एल. में हमारे ही विभाग में ग्रेड 2 के पदों के लिए खुला चयन करने का विज्ञापन निकला। मुझे एच.ए.एल. में आये चार साल हो चले थे और टाइम स्केल के अनुसार मेरा प्रोमोशन 5 साल में होना था। इसलिए मैंने सोचा कि एक साल पहले ही प्रोमोशन पाने का यह अच्छा मौका है। अतः मैंने आवेदन कर दिया। मेरा इंटरव्यू भी अच्छा हुआ था, परन्तु पता नहीं क्यों मेरा चयन नहीं हुआ। उसमें बाहर के भी कई लोग इंटरव्यू देने आये थे, लेकिन उनमें से भी किसी का चयन नहीं हुआ। इस असफलता से मुझे बहुत निराशा हुई।

उसके कुछ समय बाद ही एच.ए.एल. के कोरापुट (उड़ीसा) डिवीजन में ग्रेड 2 के पदों के लिए आन्तरिक चयन हो रहा था। मैंने भी आवेदन किया था। मेरे साथ दास बाबू ने भी फार्म भरा था। वहाँ से इंटरव्यू का काॅल आया। मैं जाने को तैयार था। मैंने सोचा था कि प्रोमोशन हो जायेगा तो बाद में लखनऊ में अपना स्थानांतरण करा लूँगा। लेकिन गोविन्द जी तथा विष्णु जी ने समझाया कि एक बार वहाँ जाने के बाद लखनऊ लौटना असम्भव होगा, इसलिए यहीं रहो। अतः मैं इंटरव्यू देने नहीं गया और बीमारी का बहाना बनाकर अवकाश पर चला गया। इंटरव्यू में न जाने के कारण हमारे मैनेजर आचार्य जी मुझसे बहुत नाराज हुए थे, परन्तु मैंने चिन्ता नहीं की, क्योंकि एच.ए.एल. से मेरा मोह भंग हो चुका था। बाद में जुलाई 1988 में ही टाइम स्केल से मेरा प्रोमोशन ग्रेड 2 में हुआ।

लखनऊ में रहते हुए मेरी रुचि प्राकृतिक चिकित्सा की ओर हो गयी थी। मैं ऐलोपैथी, होम्योपैथी और आयुर्वेदिक पद्धतियों से पर्याप्त समय तक अपने कानों का इलाज करा चुका था, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। इससे मेरा विश्वास इन पद्धतियों में कम हो गया था और प्राकृतिक चिकित्सा में बढ़ रहा था। मैंने प्राकृतिक चिकित्सा का काफी साहित्य पढ़ा था और मुझे यह विश्वास हो गया था कि सबसे अधिक वैज्ञानिक और पूर्ण चिकित्सा पद्धति यही है। इसलिए मैं अपने कानों का इलाज इस पद्धति से कराना चाहता था। आरोग्य मंदिर, गोरखपुर भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का प्रमुख केन्द्र और तीर्थ माना जाता है। मैंने उनसे पत्र-व्यवहार किया तो वहाँ के संचालक डाॅ. विट्ठल दास मोदी ने मुझे ठीक होने की गारंटी तो नहीं दी, परन्तु दो-तीन माह का समय लेकर आने की सलाह दी। मैं श्री संजय मेहता के साथ गोरखपुर जाने को तैयार हुआ और लिखा कि हम इस तारीख को पहुँचेंगे। तभी ठीक एक दिन पहले उनका पत्र आ गया कि पहले वे मेरे मामले का अध्ययन करेंगे, तब बुलायेंगे। शायद वे अपनी ही चिकित्सा के प्रति आश्वस्त नहीं थे या फिर मेरा रोग ही टेढ़ा है। इसलिए उन्होंने चुप्पी साध ली। परिणामस्वरूप गोरखपुर चिकित्सा हेतु जाने का मेरा इरादा टल गया।

फिर मैंने लखनऊ में ही किसी प्राकृतिक चिकित्सक से अपना इलाज कराने के बारे में सोचा। वहाँ ए-ब्लाॅक इन्दिरा नगर में ही एक चिकित्सक थे- डाॅ. देव, जिनका दावा था कि उन्हें 11 प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का ज्ञान है। मैं मेहता जी के साथ जाकर उनसे मिला, तो उन्होंने मुझे ठीक होने का आश्वासन दिया और चिकित्सा कराने को कहा। उनकी फीस थी मात्र 300 रु. प्रतिमाह। फीस ज्यादा नहीं थी और मुझे छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ती, क्योंकि मैं ‘के’ शिफ्ट में जा सकता था। इसलिए मैंने उनसे इलाज कराना शुरू कर दिया। पहले उन्होंने मुझे दो दिन उपवास कराया, फिर तीन दिन फलाहार कराया और उसके तुरन्त बाद दुग्ध कल्प शुरू करा दिया। उनका विचार था कि दुग्ध कल्प से न केवल मेरे कान ठीक हो जायेंगे, बल्कि स्वास्थ्य भी बन जाएगा।

उस समय मेरा वजन केवल 40 किलो था। 5 दिन के फलाहार के बाद वह घटकर 38 किलो रह गया। जब दुग्ध कल्प चालू हुआ, तो मुझे आशा थी कि मेरा वजन बढ़ना शुरू होगा, परन्तु वह नहीं बढ़ा। वास्तव में मेरी पाचन शक्ति बहुत खराब हो गयी थी, जिससे दूध पचता नहीं था। एक किलो से प्रारम्भ करके दूध की मात्र ढाई-तीन किलो तक पहुँची ही थी कि मुझे बुखार रहने लगा। यह इस बात का परिचायक था कि पाचन शक्ति खराब है। बिना पाचन शक्ति को सुधारे दुग्ध कल्प कराना डाॅक्टर की गलती थी, इसलिए वह असफल रहा। बाद में उन्होंने दुग्ध कल्प की जगह मठा कल्प शुरू कराया, परन्तु वह भी नहीं चला। अंततः एक माह पूरा होने पर मैंने उनका इलाज छोड़ दिया, क्योंकि मैं समझ गया था कि उनको प्राकृतिक चिकित्सा का पर्याप्त ज्ञान नहीं है।

इसके बाद अपने विभाग के एक आॅपरेटर श्री अशोक कुमार दुबे के कहने पर मैं अमीनाबाद के एक सिख प्राकृतिक चिकित्सक से जाकर मिला। वे केवल भोजन के आधार पर प्राकृतिक चिकित्सा करते थे। उन्होंने 50 रु. फीस लेकर मुझे एक सप्ताह का भोजन का कार्यक्रम बनाकर दिया। उसमें दिन में कई बार गाजर का जूस आदि लेने की सलाह थी। उन दिनों एक तो गाजरें बहुत मुश्किल से मिलती थीं, दूसरे, मेरे पास गाजर का जूस निकालने की सुविधा नहीं थी। इसलिए मैं एक दिन भी उस कार्यक्रम का पालन नहीं कर सका और वह प्रयास भी वहीं असफल हो गया।

तीसरी बार मैं इन्दिरा नगर सी-ब्लाॅक के डाॅ. के.पी. श्रीवास्तव के सम्पर्क में आया। वे काफी अच्छे प्राकृतिक चिकित्सक हैं और उनकी श्रीमती जी भी प्राकृतिक चिकित्सक हैं, परन्तु वे दोनों ही कुछ लालची किस्म के हैं। उस समय उनकी फीस थी रु. 750 प्रतिमाह। यह बहुत अधिक थी, फिर भी मैंने इलाज कराना तय किया। उनका इलाज अच्छा चला। एक माह में ही मेरी पाचन शक्ति काफी सुधर गयी थी। यहाँ तक कि मैं जो खाना खाता था, वह दो घंटे में ही पच जाता था और खूब जोर की भूख लग आती थी। मुझे उन्होंने विश्वास दिलाया था कि दो-तीन माह इलाज कराने पर कान ठीक होना शुरू हो जायेंगे। परन्तु उनकी फीस बहुत अधिक होने के कारण मैं अगले माह उनके पास नहीं गया। इसका एक कारण यह भी था कि मेरी बहिन गीता का विवाह आ रहा था और मुझे उसमें काफी आर्थिक सहयोग करना था। इसलिए मैंने इलाज बीच में ही छोड़ दिया। यह मेरी बहुत बड़ी गलती थी। मैंने सोचा था कि गीता के विवाह के बाद फिर इलाज करा लूँगा, परन्तु वैसा नहीं कर सका, क्योंकि तब तक मैं एच.ए.एल. छोड़कर बैंक की नौकरी में आ चुका था और उसके कुछ समय बाद ही मेरा स्थानांतरण वाराणसी हो गया था। तब से अभी तक मैं वापस लखनऊ नहीं पहुँचा हूँ। डाॅ. श्रीवास्तव अभी भी इन्दिरा नगर में ही हैं। उनका चिकित्सालय शायद सेक्टर 16 में शिफ्ट हो गया है।

(पादटीप : लगभग २१ साल बाहर रहने के बाद मेरी पोस्टिंग फिर लखनऊ में हुई है और आजकल लखनऊ में ही हूँ. इसकी कहानी आत्मकथा के चौथे भाग में लिखी जाएगी.)

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 19)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , एच ए एल के कडवे विवहार के बारे में पड़ा , यह अफसरशाही इंडिया से कभी नहीं जायेगी . सकूल कालिज के दिनों में मुझे भी ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा था . कोई अपनी जिमेदारी समझता ही नहीं , ना किसी से हमदर्दी है. भाई साहिब , मैं यहाँ कोई अमीर नहीं हूँ लेकिन मुझे इतना सुख है कि इंडिया आने से ही घबराता हूँ . यहाँ कोई प्राब्लम हो , उसी वक्त टेलीफून पर ही सौलव हो जाती है . ऐसा इंडिया में हो जाए तो मैं इंडिया रहना ही पसंद करूँगा . एक तो पैसे बनाने के लिए इतना झूठ बोला जाता है कि रब ही राखा . जो मेरी बीमारी है उस को दाएग्नोज़ करने के लिए मुझे बहुत दिन हस्पताल रखा .मेरे इतने टेस्ट हुए कि लिखना चाहूँ तो बहुत वक्त लगेगा . और उन्हों ने कहा कि यह PLS है जो ALS भी हो सकती है और यह भी बताया कि अगर मैं अपने पैसे बर्बाद करना चाहूँ तो यह मेरी मर्ज़ी है लेकिन इस का कोई इलाज नहीं है . निरोलोजिस्ट ने यह भी कह दिया कि मैं इस को इन्तार्नैत पर देख लूं . मैंने देखा तो समझ आ गिया लेकिन मेरी वाइफ बच्चों ने जिद करके देसी लोगों से इलाज करवाने के लिए मजबूर कर दिया . यकीन मानों इन लोगों ने हमें जी भर कर लूटा . एक तो लम्बे दाहड़े वाले सिंह ने जो इंडिया से आया हुआ था उस ने ६ सौ पाऊंड हम से लूटा . मैंने अपनी बीमारी के बारे में बहुत साइटें देखि थी और एक अमरीकन लेडी जिस को मेरी ही बीमारी है , उस के ब्लॉग से पिछले ४ साल से जुड़ा हूँ . यकीन मानों जिस जिस से भी इलाज करवाया उस को पता ही नहीं था मुझे बीमारी किया है . बस सभी एक ही बात कहते थे ” फिकर ना करो जी , मैं बिलकुल ठीक कर दूंगा “. एक और बात भी कहना चाहूँगा कि मैं होमिओपैथी की भी स्टडी की , पड़ने को तो ऐसा लगता है कि बिलकुल ठीक हो जायोगे लेकिन ऐसा होता नहीं . इस में जैसे जैसे दुआई को दाइलिउत करते जायेंगे इस की पोटेन्सी बडती जाती है , आखिर में उरिज्नल दुआई का कोई मौलिकिऊल रह ही नहीं जाता . इस के हिसाब से एक चमचा दुआई सारे समुन्दर के लिए काफी है . बैल्जिंम और फ्रांस में इस पर एक्सपैरीमैंट किये गए , उन्होंने साबत कर दिया कि होमिओपैथी सही इलाज नहीं है .

    • विजय कुमार सिंघल

      बिल्कुल सही कहा है, भाई साहब आपने. एक कहावत है कि ‘या ठगाए भोगी, या ठगाए रोगी’ अर्थात भोगी और रोगी को सभी जगह लूटा जाता है. भारत में यह बीमारी बहुत है. यहाँ के डाक्टर-वैद्य किसी चोर डकैत से कम नहीं हैं.
      होम्योपैथी भी किसी को ठीक नहीं करती. यह जरूर है कि उसका साइड इफ़ेक्ट कुछ कम होता है.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की किश्त के लिए धन्यवाद। सरकारी विभागों में अनेक अधिकारी व कर्मचारी ऐसे मिलते हैं जिनका व्यवहार कष्टकर होता है। सहयोगी अधिकारीयों वा मित्रो की भी कमी नहीं होती। ऐसे खट्टे व मीठे अनुभव मेरे भी रहे हैं। विवशता में इन्हे झेलना होता है। कानो की प्राकृतिक चिकित्सा के विषय में भी ध्यान पूर्वक पढ़ा। सभी रोगो की प्राकृतिक चिकित्सा अतीव उपयोगी होती है। मुझे लगता है की यदि इसके साथ कुछ वा एकाधिक आयुर्वेदिक औषधि आदि का भी साथ में प्रयोग करें तो कई बार लाभप्रद होता है या हो सकता है। आर्य समाज में इंदौर के रहने वाले एक विद्वान श्री वीरसेन वेदश्रमी हुए हैं। वह बहुत बड़े बड़े यज्ञ – अग्निहोत्र करते थे और असाध्य रोगो की चिकित्सा भी करते थे। अब वह संसार में नहीं हैं। उन्होंने यज्ञ का ह्रदय, बहरापन एवं गूंगापन आदि अनेक रोगो पर सफलता पूर्वक परीक्षण किया था। वह यज्ञ से सूखा पड़ने पर वृष्टि यज्ञ भी कराते थे जिसमे उन्हें सफलता मिलती थी। उनकी एक प्रसिद्ध पुस्तक वैदिक सम्पदा है जिसे मैं अपने विद्यार्थी जीवन में क्रय करना चाहता था परन्तु धनाभाव आदि के कारण ले नहीं सका था। यह अभी उपलब्ध है। इन पंक्तियों को लिखते हुए यह प्रेरणा हुई अतः अब मांगूंगा। श्री वेदश्रमी छोटे छोटे ट्रैक भी लिखते थे। आप कृपया मुझे अपना डाक पता सूचित करने की कृपा करें। यदि उनके दो ट्रैक्ट जो मेरे पास थे, मिल गए तो उनकी छाया प्रति कराकर आपको प्रेषित करूँगा। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      हार्दिक आभार, मान्यवर ! मैं वेदश्रमी जी के लेख और पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहूँगा। मेरा डाक पता यह है-
      इलाहाबाद बैंक मंडलीय कार्यालय,
      डी.आर.एस., तृतीय तल
      हज़रतगंज, लखनऊ – २२६००१

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद महोदय। मैंने पता लिया है। में पृथक से मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी की स्कैन प्रति “आपकी तस्वीर/चित्र” ईमेल से भेज रहा हूँ।

        • विजय कुमार सिंघल

          जी कहानी मिल गयी है. स्क्रीन पर ही पढ़ ली है. बहुत अच्छी कहानी है. आप्कोहर्दिक धन्यवाद इतना कष्ट करने के लिए.
          कृपया वेदश्रमी जी की पुस्तक का मूल्य सूचित करें ताकि राशि भेजकर मंगवाई जा सके.

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