कविता

कुछ बोलूँ

kaanch ki barni

मैं न बोलूँ मगर
एक तारा बोले
दिल बदले
करवट
कौन
प्यारा
बोले !!!

शीशे की ये बरनी
कहाँ मैं रखूँ
ले जाऊँ
वक़्त
बरनी
राज़
खोले!!!

सुनूँ पी की बोली
समझ न पाऊँ
जी भीतर
कौन
हमारा
प्यारा
बोले!!!

रेशम सी ये दुनियां
चमके चम् चम्
जीव जले
तब
मोल
डोरी
होवे !!!

माटी से मैं खेलूँ
माटी शीस नवाऊँ
माटी इतराये
माटी
मोल
माटी
होवे!!!

One thought on “कुछ बोलूँ

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! सुंदर कविता !!

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