यादें…
सुबह आती है,
शाम ढल जाती है,
पर तुम्हारी याद है,
कि जाती ही नहीं!
जितना भागती हूँ मैं,
तुम्हारी यादों से दूर,
और उतना ही करीब,
पाती हूँ अपने !
बडा अजीब है ये,
प्यार का खुमार ,
न जाने क्यों,
कैसे हो जाता है !
काश कि वक़्त की डोर ,
मेरे हाथ में होती,
तुम्हारी यादों को ,
वक़्त के साथ,
कैद कर देती !
ताउम्र के लिये उसी जगह,
जहाँ पहली बार तुम मिले !
हर मौसम आता चला गया,
और में वहीं की वहीं,
तुम्हारी यादों के साथ!
गर्मीयों की लम्बी,
वीरान दोपहरी,
आँखें खिडकी पर टकटकी लगाये हुये !
उमड -घुमड मेघ घिर आये,
ठंडी हवायें शूल सी ,
चुभ जाती,
लगता तुम्हारी यादों में,
खलल डाल रही हैं!
बारिश की बूँदों के साथ,
मन का गुबार भी बह निकला ,
पर यादें टस से मस न हुई !
सर्दियों की दोपहरी में हल्की-हल्की,
मीठी सी धूप के साथ ,
तुम्हारी यादें और सताने लगीं !
मन का पपीहा ,
भी टेरने लगा,
कोई इतना भी बेमुरब्बत,
कैसे हो सकता है!
हर एक मौसम आकर चला गया,
तुम नहीं आये !
तुम ऐसे जहाँ में क्यों चले गये,
कि वापस ही न आ सको !
तुम्हारी यादों को सहेजते-सहेजते,
मैं भूल गयी कि मैं तो एक जिस्म हूँ,
रूह तो तुम्हारे साथ ही चली गयी !
…राधा श्रोत्रिय “आशा”