सामाजिक

स्वामी विवेकानन्द जी के उद् बोधक प्रशंसनीय विचार

स्वामी विवेकानन्द जी के हिन्दू जाति को जीवित जागृत करने वाले विचार इस लेख में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक आर्यजगत पत्र के 19 अक्तूबर, 1980 विशेषांक में लगभग 35 वर्ष पूर्व इन विचारों को मोहभंग का स्वर शीर्षक दिया गया था। हमें यह विचार हृदय को छू लेने वाले लगे, अतः धार्मिक व सामाजिक हित में इन्हें प्रस्तुत करने की प्रेरणा हुई। हम आशा करते हैं कि स्वामी विवेकानन्द जी के इन विचारों पर पाठक मनन करेंगे और इनको क्रियान्वित करने के लिए अपने स्तर पर वह जो कुछ कर सकते हैं, करेंगे। आगामी पंक्तियों में स्वामीजी के विचार प्रस्तुत हैं।

                 स्वामी विवेकानन्द जी लिखते हैं कि ‘‘भारतीयों का दुःखदैन्य देखकर कभीकभी मैं सोचता हूंफेंक दो सब यह पूजापाठ का आडम्बर। शंख फूंकना, घंटी बजाना और दीप लेकर आरती उतारना बन्द करो। निज मुक्ति का, साधन का, शास्त्रज्ञान का घमंड छोड़ दो। गांवगांव घूमकर दरिद्र की सेवा में जीवन अर्पित कर दो।

धिक्कार है कि हमारे देश में दलित की, विपन्न की, संतप्त की चिन्ता कोई नहीं करता। जो राष्ट्र की रीढ़ हैं, जिनके परिश्रम से अन्न उत्पादन होता, जिनके एक दिन काम बन्द करते ही महानगर त्राहित्राहि कर उठते हैंउनकी व्यथा समझने वाला कौन है हमारे देश में? कौन उनका सुखदुःख बंटाने को तैयार है?

            देखो, कैसे हिन्दुओं की सहानुभूतिशून्यता के कारण मद्रास प्रदेश में सहस्रों अछूत ईसाई धर्म ग्रहण करते जा रहे हैं। मत समझो कि वे भूख के मारे ही धर्मपरिवर्तन करने को तैयार हुए हैं। इसलिए हुए हैं कि तुम उन्हें अपनी सम्वेदना नहीं दे सकते। तुम उनसे निरन्तर कहते रहते होछुओ मत। यह मत छुओ, वह मत छुओ। इस देश में कहीं कोई दयाधर्म अब बचा है कि नहीं? या कि केवल मुझे छुओ मत रह गया है। लात मार कर निकाल बाहर करो इस भ्रष्ट आचरण को समाज से।

            कितना चाहता हूं कि अस्पृश्यता की दीवारें ढहा कर सब ऊंचनीच को एक में मिलाकर पुकारूं

            आओ सब दीन हीन सर्वहारा ! पददलित, विपन्न जन ! आओ, हम श्री रामकृष्ण की छत्रछाया में एकत्र होवें। जब तक यह जन नहीं उठेंगे, तब तक भारत माता का उद्धार नहीं होगा।

अपने समय के मूर्धन्य वैदिक विद्वान और विख्यात पत्रकार, दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक आर्य जगत के यशस्वी सम्पादक श्री क्षितीज वेदालंकार ने उपर्युक्त लेख के आरम्भ में टिप्पणी की है कि मोहभंग का यह स्वर स्वामी विवेकानन्द की ईमानदारी का सूचक है जो कि उचित ही है। स्वामी विवेकानन्द जी के उपर्युक्त विचारों में जो अभिव्यक्ति हुई है वह महर्षि दयानन्द के सन् 1863 व उसके बाद की गई वैचारिक व सामाजिक क्रान्ति का साक्षात् प्रतिरूप है, उससे प्रभावित व उसका पोषक है। दुःख इस बात का है कि हमारे पौराणिक पण्डे-पुजारियों व महन्तों को इस विषय में अपने आचरण को सत्यारूढ़ करना था परन्तु आज भी स्थिति न्यूनाधिक जस की तस है। देशवासियों मुख्यतः पौराणिक कर्मकाण्डियों ने इसे अपनाया नहीं है। ईश्वर छुआ-छूत व अस्पर्शयता को किसी भी रूप में व्यवहार में लाने वाले लोगों को सद्बुद्धि व सद्ज्ञान प्रदान करें जिससे मानवता के इस कलंक छुआछूत को धोआ जा सके। हमें यह भी लगता है कि स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में गायत्री मन्त्र की शिक्षा का ही एक प्रकार से रूपान्तरित रूप प्रस्तुत किया गया है।

मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “स्वामी विवेकानन्द जी के उद् बोधक प्रशंसनीय विचार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा , यह बात तो मैं हमेशा से कहता आया हूँ कि यह अब घर वापिसी की बातें हो रही हैं , इस का कारण तो पहले तलाश करो कि हिन्दुओं से इसाई कियों बने ? जब हिन्दू दलितों को नफरत करते हैं तो उन्होंने वहीँ जाना है यहाँ उन को पियार से बुलाते हैं . दया नन्द जी की हर बात से मैं सहमत हूँ . उन्होंने हिन्दू धर्म के पतन का कारण ढून्ढ लिया था . मैं बहुत दफा कह चुक्का हूँ कि जो काम मदर ट्रेस ने किया वोह हिन्दू महान्सभाओं का काम था . अब फिर यह लीडर गलत बोल रहे हैं , भड़काऊ भाषण दे रहे हैं , इस से किया हासल होगा जब यह मानना नहीं छोड़ते कि शुद्र पैरों से पैदा हुआ है . और कुछ कुछ इस का असर सिख धर्म में भी है . सिख धर्म बना ही इन पाखंडों को दूर करने के लिए था लेकिन इन लोगों में भी वहम व् भरम मौजूद हैं . अगर कोई कोशिश करता है इन वहमों को दूर करने के लिए तो सिंह उस के खिलाफ हो जाते हैं , इस लिए डरता कोई बोलता ही नहीं लेकिन चुप चुप रह कर राधा सुआमी निरंकारी और राम रहीम गुरमीत सिंह की तरफ जा रहे हैं . नाम लिए बगैर मैं कहने से गुरेज़ नहीं करूँगा कि जो हिन्दू धार्मिक लीडर कर रहे हैं इस से नफरत ही बढेगी लेकिन हिन्दू धर्म में इतने लोग आएँगे नहीं . दया नन्द जी की बात ही सही थी , उस पे चल कर बहुत सुधार हो सकता था . मुझे एक पुरानी बात याद आ गई . मैट्रिक में हमारे एक टीचर थे विद्या परकाश , उनहोने एक बात सुनाई ” मेरा एक स्टूडेंट था मोहन सिंह जो पंजाब यूनिवर्सिटी में फस्ट आया था लेकिन उस के पेरेंट्स बहुत गरीब थे . वोह सकूल छोड़ कर बहुत वर्षों बाद मुझे मिलने आया , मैंने उस को पहचाना नहीं किओंकि वोह बहुत शानदार सूट पहने हुए था और उस के सर पर मैह्न्घी हैट थी . उस ने मेरे पैर सपर्श किये और बोला मास्टर जी मैं मोहन हूँ . मैंने उस से पुछा , तूने वाल कियों कटा लिए . वोह बोला मास्टर जी मैंने इसाई धर्म ग्रैहन कर लिया . मैंने कहा मोहन तुम ने बहुत बुरा काम किया जो अपना धर्म छोड़ दिया . वोह बोला मास्टर जी किया मैं इस धर्म को चाटूं? मैं पड़ना चाहता था , मैं सब जगह गिया , हरमंदर साहब भी गिया लेकिन किसी ने एक पैसे की मदद नहीं की . मैं लुधिआने गिया , चर्च वालों से अपनी कहानी बताई , उन्होंने मुझे पूरी मदद दी और इस वक्त मैं एम एस सी कर रहा हूँ ” इस कहानी से आप समझ ही गए होंगे कि कसूर किस का है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आपकी प्रतिक्रिया का एक एक शब्द कई बार पढ़ा। मैं आपके हर निष्कर्ष से पूरी तरह से सहमत हूँ। मुझे एक प्रसंग याद आ गया। बाल हकीकत राय को धर्म की निंदा के झूठे आरोप में मुस्लिमों ने मौत के घाट उत्तर दिया था। किसी कवि ने उस पर हकीकत राय के मुह से कहलवाया है कि “यदि काटना है तो बाहर की हकीकत को काटो, वरना काटती असली हकीकत को यह तलवार नहीं”. मुझे लगता है कि धर्मान्तरण रोकने के लिए हमें दलितों, कमजोरो वा उपेक्षितों के प्रति सहानुभूति पूर्ण मानवीय व्यवहार करना होगा। उन्हें समानता का दर्जा ही नहीं देना है अपितु उन्हें यह लगना चाहिए कि उनके प्रति कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जा रहा है। इसके लिए हमारे धार्मिक गुरुओं को भूमिका निभानी है परन्तु वह ज्ञान, स्वार्थ ग्रस्त हैं व कूपमंडूक बने हुवे हैं। शायद उनसे उम्मीद करना रेत में फूल उगाने के समान है। महर्षि दयानंद जी ने एक बार खिन्न होकर लिखा था कि यह ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य वा शूद्र – वर्ण व्यवस्था हिन्दू जाती के लिए मरण व्यवस्था बन गई है। मैं यह भी समझता हूँ की हमें सत्य धर्म का प्रचार करना चाहिए और जो भाई वैदिक मत को अपनाना चाहें उन्हें अपनाना चाहिए. सत्य मत को ग्रहण वा धारण करना ही मनुष्यता है। आपका धन्यवाद।

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