उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 45)
41. महामिलन
‘वह’ उस समय नायबे सल्तनत मलिक काफूर का सहायक था, दक्खन की जंगों में उसने अपनी वीरता से नायबे सल्तनत को मुग्ध कर दिया था। इसलिए मलिक काफूर ने उसे ग्वालियर का किलेदार बनाया और शाही कैदियों को निगरानी में रखने का हुक्म दिया।
राजकुमारी पर वस्तुतः किले के भीतर कोई पाबंदी न थी, पूर्ण स्वतंत्र थी। बस किले के बाहर उन्हें जाने की अनुमति नहीं थी। हाँ, शहजादा खिज्र खाँ जरूर एक ही कक्ष में कैद था और वह किले में कहीं भी आ जा नहीं सकता था। राजकुमारी देवलदेवी को यह सुयोग बड़े भाग्य से मिला था और यूँ कहो तो वह अब शहजादे से पिंड छुड़ाने का अवसर तलाश कर रही थी।
उस शाम जब सूर्य छिप गया था और अंधकार अपनी चादर फैलाकर धरती को अपनी बाहों में समेट रहा था, राजकुमारी ने उसे एक कक्ष में प्रवेश करते देखा। उसे देखते ही उनका हृदय कंपित हुआ और गौरवर्ण पिडलियाँ थराथरा उठीं। अपनी दासियों को खुद को अकेला छोड़ने को बोल उन्होंने उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। और राजकुमारी अकेली लरजते पैरों से चलकर उसके कक्ष में आई।
आहट पाकर उसने फुर्ती से तलवार उठाई पर शमा की रोशनी में एक जनाना को देखकर वह चुपचाप खड़ा हो गया। ”कौन?“
”मलिका-ए-सल्तनत-ए-वली अहदा“
”शायद मलिका को मालूम नहीं, शहजादे अब सल्तनत के वलीअहद नहीं रहे। अब वह सल्तनत के कैदी हैं।“
”हाँ, और अब आपकी निगरानी मेें हैं, और शायद हम भी।“
”हाँ, हमारा काम सल्तनत की हिफाजत करना है। हम वही कर रहे हैं, सरकश बागियों को काबू में करना हम खूब जानते हैं। शहजादा खिज्र खाँ ने सल्तनत से बगावत की है, अब वह हमारी निगरानी में है। आप शहजादे की बेगम हैं इस लिहाज से आप भी हमारी निगरानी में हैं।“
”अगर हम कहें, हम अन्हिलवाड़ की राजकुमारी देवलदेवी हैं तो…।“ देवलदेवी ने जानबूझकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी।
”तो आपकी मैं भर्त्सना करूँगा, कहाँ वह देवी और कहाँ ऐश्वर्य के लिए समर्पित एक साधारण स्त्री। आप स्वयं की तुलना उन देवी से न करें, जिन्होंने हमें स्वधर्म और राष्ट्ररक्षा का पाठ पढ़ाया था।“
”पर आप भी तो वह पाठ भूल गए। न जाने कितने निस्सहाय और राष्ट्रभक्तों को तुमने नृशंस हत्या की, उन्हें अमानवीय दंड दिए। क्या यह वही पाठ है जो कभी हमने तुम्हें सिखाया था।“ राजकुमारी देवलदेवी अब तक ‘हसन’ के रूप में धर्मदेव को पहचान चुकी थी। पुनः बोली, ”कहो सिपहसालार, हम आपको क्या कहें- ‘हसन’ या फिर ‘धर्मदेव’?“
”मैं तो सदा ‘धर्मदेव’ ही रहा हूँ। यह कोई प्रश्न नहीं है, प्रश्न तो यह है मुझे ‘धर्मदेव’ बनाने वाली अन्हिलवाड़ की राजकुमारी से दिल्ली की बेगम कैसे बन गई?“
”धर्मदेव, स्त्री चाहे राजकुमारी हो या फिर कोई और, वह स्त्री होती है जिसे निर्जीव वस्तु की तरह प्रयोग किया जाता है, हमारा भी अपहरण हुआ, बलात अपहरण।“
”और आपने स्वीकार कर लिया? टूट गई राजकुमारी जबकि कुछ वर्ष पूर्व ही चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी ने जौहर में स्वयं को भस्मीभूत करके भारतीय स्त्रियों के लिए शील रक्षा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया था।“
”हाँ धर्मदेव, उनका बलिदान अतुलनीय है, वंदनीय है। पर हमने भी बलिदान किया है, किंतु उसका मार्ग अलग है।“
”कैसे राजकुमारी?“ धर्मदेव तनिक उत्सुकता से बोले। और फिर राजकुमारी उन्हें वह सब बताती चली गई। जब वह धर्मदेव पर पहली दृष्टि में मुग्ध होकर उनका नामकरण करती है, अन्हिलवाड़ से उनका पलायन, यादव राजकुमार शंकरदेव से गंधर्व परिणय, राजकुमार भीम को दिया वचन, स्वधर्म की पुनस्र्थापना के सुअवसर के लिए भ्रष्ट शहजादे खिज्र खाँ के समक्ष नश्वर देह का समर्पण, कंचन सिंह को दंड, शहजादा को विद्रोह के लिए उकसाना और काफूर के हृदय में प्रमिला के द्वारा सुल्तान बनने की इच्छा पैदा करना।