उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 46)
देवलदेवी कहती रही और धर्मदेव सुनते रहे, ठीक उसी तरह जैसे धर्मभक्त श्रीमद्भागवत पुराण का प्रवचन सुनता है। राजकुमारी देवलदेवी की विडंबना की कथा सुनकर नुसरत खाँ का वध करने वाले वीर धर्मदेव (हसन) की आँखों से अश्रु ढलक पड़े और उनके कपोल उन अश्रुओं की नदी से सराबोर हो गए।
धर्मदेव को यूँ अश्रु बहाते देखकर राजकुमारी स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी और उन्होंने आगे बढ़कर अपनी कोमल उगुलियों से धर्मदेव के गालों पर ढुलकती अश्रु की बूंदों को संभाल लिया। राजकुमारी के इस कृत्य से धर्मदेव थोड़ा पीछे हटते हुए बोले ”यह क्या राजकुमारी, एक अस्पृश्य को आपने स्पर्श कर लिया।“
राजकुमारी हँसते हुए बोली, ”सत्य कहा धर्मदेव, अब हम अस्पृश्य हो गए हैं, आपको स्पर्श नहीं कर सकते। हम भूल गए थे जिसकी देह की विडंबना म्लेच्छों ने की हो उसे एक वीर धर्मानुरागी पुरुष को स्पर्श करने का अधिकार नहीं।“
”राजकुमारी…“ तड़पकर बोले धर्मदेव, ”यह क्या कह रही हैं आप, क्या कभी ‘देवी’ भी अस्पृश्य हो सकती है। आपके बलिदान के आगे मैं नतमस्तक हूँ ‘देवी’! आप आज्ञा करें, आपका यह सेवक सदा आपका अनुगामी रहेगा। पर मैं जन्म से अछूत हूँ, मुझे स्पर्श करके आप स्वयं को कलंकित न करें।“
”जिसका जीवन ही कलंकित हो गया हो धर्मदेव, अब वह किसी के स्पर्श अथवा अनस्पर्श से क्या कलंकित होगी। संभवतः आपको स्मरण नहीं हमने आपसे कर्म के द्वारा जातिउत्कर्ष करने को कहा था। आप उसी मार्ग पर हैं। आतताई नुसरत खाँ का वध करके अपने आंशिक रूप से अन्हिलवाड़ विध्वंस का प्रतिशोध ले लिया है।“
”किंतु यह पर्याप्त नहीं है देवी। नृशंस सुल्तान अब तक जीवित है और उसका सर्वनाश ही हमारा उद्देश्य है।“
”निश्चय ही उसका सर्वनाश होगा आर्य धर्मदेव। हम स्त्री हैं, अकेले थे, इसलिए कभी-कभी घबरा उठते थे। किंतु अब आप मिल गए हो आपको देखकर हममें सबलता आ गई है। परमेश्वर पर विश्वास करो हम अवश्य सफल होंगे।“
”देवी! क्या कहा आपने मुझे आर्य? विश्वास नहीं होता एक नीच कुलोत्पन्न को इतना सम्मान। मैं धन्य हुआ देवी। आज्ञा दें तो अभी क्लीव खिज्र खाँ का वध कर दूँ, काफूर को यमलोक का रास्ता दिखा दूँ।“
”नहीं आर्य धर्मदेव, अभी इसका सुअवसर नहीं, तनिक प्रतीक्षा करनी होगी।“
”फिर कहो देवी, मैं आपका किस भांति शुभ करूँ?“
”आर्य, समय के थपेड़ों ने कदाचित हमें निर्लज्ज बना दिया है, स्त्री सुलभ लाज का हरण विधर्मियों ने इस देह की विडंबना करके कर लिया है। आप हमें निर्लज्ज ही समझेंगे किंतु फिर भी बालपन में आपकी मनोहारी छवि देखकर हमारे हृदय जो स्नेह का दीप प्रज्ज्वलित हुआ था वह आज आपको यूँ सम्मुख पाकर प्रेम की अग्नि के रूप में धधक रहा था। आप हमें धर्मभ्रष्ट समझकर ठुकरा सकते हैं हमें क्षोभ न होगा।“
”देवी! आपको ठुकराने का तो प्रश्न ही नही, इंद्र भी आपका प्रेम प्रस्ताव नहीं ठुकरा सकते। किंतु अन्हिलवाड़ के राजमहल का एक सेवक अन्हिलवाड़ की राजकुमारी के समक्ष यह साहस करे तो कैसे करे? क्षमा करें देवी! सेवक में ये धृष्टता न होगी।“
देवलदेवी आगे बढ़कर धर्मदेव के वक्ष पर सिर टिका देती हैं, धर्मदेव अविचल खड़े रहते हैं। उसी स्थिति में देवलदेवी बोली, आर्यपुत्र हम स्त्री हैं, निर्बल हैं, स्खलित हो रहे हैं हमें सहारा दो। मेरे अपमान का प्रतिशोध लेकर मेरे सम्मान की पुनःस्थापना करो। आज अन्हिलवाड़ की राजकुमारी देवलदेवी जिसको म्लेच्छों ने बलात् भ्रष्ट किया है वह आपको अपना पति अपना स्वामी मानती है।“
धर्मदेव, देवलदेवी के केशराशि सहलाते हुए बोले ”देवी! इस धर्मयुद्ध में आपका अभी एक बलिदान शेष है, पर कैसे कहूँ? आप पूर्व ही इतने बलिदान कर चुकी हैं।“
”झिझक कैसी? देव! आपको स्वामी मान चुकी हूँ। आप आज्ञा दीजिए।“
”देवी! इस देह का एक बार और बलिदान करना होगा। कुछ समय उपरांत सुल्तान के अन्य भ्रष्ट शहजादे मुबारक की बेगम बनने का स्वांग भर के। क्षमा करें देवी! पर योजनाओं के अगले चरण में यह आवश्यक होगा। हम उस शहजादे का विश्वास प्राप्त कर चुके हैं।“
”स्वधर्म की पुनस्र्थापना हेतु स्वामी! आपकी आज्ञा शिरोधार्य। देवलदेवी आपकी योजनाओं में सदैव आपकी सहायक रहेगी।“ इतना बोलकर देवलदेवी धर्मदेव के वक्ष से लिपट गई, धर्मदेव ने भी उनकी कंपित देह को अपने अंकपाश में भर लिया।
आकाश में तैरते उल्का पिंड, गतिमान चंद्र, नक्षत्र, विचरते गंधर्व और देवता धर्मदेव और देवलदेवी के उस महामिलन के दृश्य में खो गए जिसमें दोनों कई बार स्खलित हुए, कई बार संभले और कई बार एक-दूसरे से प्रेम प्रदर्शित करते हुए आलिंगनबद्ध हुए।
बहुत रोचक उपन्यास ! अब यह चरम पर पहुँच गया है.