यशोदानंदन-२६
श्रीकृष्ण, भैया दाऊ और अपने मित्रों के साथ नियमित रूप से वन जाने लगे। वे चारागाह जाते, गाय-बछड़ों को स्वतंत्र विचरण करने के लिए छोड़ देते और स्वयं अपने संगी-साथियों के साथ भांति-भांति की क्रीड़ा करते; कभी वे गायों और बछड़ों को चराते समय बांसुरी की सुन्दर धुन बजाते। संपूर्ण गोधन कान्हा की बांसुरी के स्वर को पहचानता था। चरते-चरते जो गौवें और बछड़े दूर निकल जाते थे, वे भी कान्हा की बांसुरी की ध्वनि सुन वापस लौट आते। कभी वे बेल के फलों को तोड़कर मित्रों के साथ वैसे ही खेलते जैसे छोटे बच्चे गेंद खेलते हैं। कभी वे नाचते, तो सारे पशु-पक्षी और ग्वाल-बाल उनके नूपुरों की रुनझुन पर मंत्रमुग्ध हो जाते। कभी-कभी वे कंबल ओढ़कर स्वयं बैल तथा गैया बन जाते। इस तरह दोनों भाई मित्रों के साथ खेलते रहते। कभी वे गायों की बोली की नकल करते, तो कभी अन्य पशु-पक्षियों की। वे सामान्य संसारी बालकों की भांति बाल-लीला करते, स्वयं आनन्दित होते और अन्यों को भी आनन्द बांटते।
कंस मथुरा के सुरक्षित राजमहल में रहते हुए भी भयभीत रहता था। उसे अपनी शक्ति पर बड़ा अभिमान था। परन्तु चौबीस घंटों में ऐसा कोई घंटा नहीं होता, जिसमें उसे अपने प्राणों का भय सताता न हो। उसे बड़े-बड़े योद्धाओं, सैनिकों और सेनानायकों से अधिक डर मथुरा के बालकों से लगता था। उसके गुप्तचर प्रत्येक स्थान में फैले थे। वृन्दावन के विलक्षण बालक श्रीकृष्ण की गतिविधियां भी उसे ज्ञात होती रहती थीं। उसने कान्हा को मारने के लिए कई यत्न किए लेकिन सब असफल ही रहे। उसने वृन्दावन में श्रीकृष्ण-वध के लिए अपने मित्र वत्सासुर को नियुक्त किया। कंस के चरणों में अपना प्रणाम निवेदित कर वत्सासुर वृन्दावन पहुंचा। यमुना के तट पर अपने मित्रों के साथ खेलते हुए श्रीकृष्ण को देख वह अभिभूत हो गया। कुछ देर तक दूर खड़ा हो वह उस दिव्य बालक को देखता ही रहा, फिर उसे अपने प्रयोजन की याद आई। उसने बछड़े का रूप धारण किया और अन्य बछड़ों में मिल गया। उसे पता नहीं चला कि कान्हा ने उसे देख लिया था। उन्होंने दाऊ को असुर के आने की सूचना दी। फिर क्या था? दोनों भ्राताओं ने चुपके से उसका पीछा किया और वत्सासुर को पकड़ ही लिया। श्रीकृष्ण ने वत्सासुर की पिछली टांगें और पूंछ पकड़ ली और बलपूर्वक घूमाकर एक वृक्ष पर दे मारा। असुर के प्राण निकल गए। वह पेड़ की चोटी से भूमि पर आ गिरा। कान्हा के सभी संगी-साथियों ने यह दृश्य देखा। उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा। सबने एक-दूसरे को गले लगाया और नृत्य करने लगे। श्रीकृष्ण की सुरीली बांसुरी भी बज उठी। आकाश से देवताओं ने पुष्प-वर्षा की।
वत्सासुर के वध के पश्चात कंस को घोर आश्चर्य हुआ। एक पांच वर्ष का बालक वत्सासुर का वध कैसे कर सकता है? वह शंकित हो उठा। उसकी रातों की नींद उड़ गई। उसने अपने अन्य मित्र बकासुर को याद किया और अपनी चिन्ता उसके सामने रखी। स्वामीभक्त बकासुर ने श्रीकृष्ण को मारने की प्रतिज्ञा की और चल पड़ा वृन्दावन की ओर। यमुना के किनारे उसने अपना ठौर बनाया। यह वही स्थान था जहां समस्त ग्वाल-बाल गायों और बछड़ों के साथ प्यास बुझाते थे। कान्हा के मित्रों ने घाट पर घात लगाए एक विशालकाय पक्षी को देखा। ऐसा विशालकाय पक्षी किसी ने पहले कभी नहीं देखा था। उसका शरीर पर्वत के समान था और उसकी चोटी वज्र के समान थी। वह मछली खाने के बदले किसी दूसरे शिकार को ढूंढ़ रहा था। शीघ्र ही कान्हा उसके दृष्टिपथ में आ गए। वह सहसा उनके पास आया और पलक झपकते अपने विशाल चोंच से उनपर हमला बोल दिया। जबतक कोई कुछ समझता, उसने श्रीकृष्ण को निगल लिया। बलराम की आँखें फटी रह गईं। वे शोक से विह्वल हो गिर पड़े। अन्य ग्वाल-बाल निष्प्राण-से हो गए। बकासुर जब श्रीकृष्ण को निगल रहा था, तो उसके कंठ में तीव्र जलन होने लगी। जिसमें कोटि-कोटि सूर्य समाविष्ट हो, उसे कौन निगल सकता है। जब जलन असह्य हो गया और प्राण पर बन आई, तो बकासुर ने श्रीकृष्ण को उगल दिया और अपनी चोंच में पकड़ आकाश में उछाल दिया। पुनः अपनी चोंच में भींचकर मारने का उपक्रम किया। श्रीकृष्ण ने समय न गंवाते हुए बकासुर की चोंच अपने दोनों हाथों में पकड़ ली। उन्होंने बकासुर की चोंच को दो भागों में चीर डाला। असुर देखते ही देखते निष्प्राण हो गया। ग्वाल-बालों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था, परन्तु श्रीकृष्ण को सबने मुस्कुराते हुए अपनी ओर आते देख उन्हें विश्वास करना पड़ा। एक बड़ा संकट टल गया था। सभी आँखों में आनन्द के आंसू लिये कान्हा के गले मिले। बलराम तो इतने प्रसन्न हुए जैसे उन्हें उनका जीवनाधार प्राप्त हो गया हो। शाम हो चली थी। सबने अपने बछड़े एकत्र किए और घर की ओर प्रस्थान किया। आकाश से निरन्तर पुष्प की वर्षा हो रही थी वृन्दावन वासियों से श्रीकृष्ण के इस अद्भुत कृत्य को आश्चर्य एवं भक्ति से सुना। सभी उनसे अथाह प्रेम करते थे। उनकी महिमा तथा उनके विजय-कृत्यों को सुनकर सभी उनके प्रति अधिक वत्सल हो उठे। उनके मन में तरह-तरह की चिन्तायें घर बनाने लगीं, फिर भी वे कान्हा के मुख से अपनी दृष्टि हटा नहीं पा रहे थे। नन्द महाराज समेत सारे वयोवृद्ध ग्वाले कान्हा को गले लगाने लगे। मातु यशोदा को जब घटना की सूचना मिली तो वे तूफान की भांति बाहर आईं। श्रीकृष्ण के एक-एक अंग का सूक्ष्म निरीक्षण किया – कही कोई चोट तो नहीं लगी। सबकुछ सही था परन्तु वे अपने को रोक नहीं पाईं। पुत्र को छाती से लगा देर तक रोती रहीं। बड़ी कठिनाई से नन्द महाराज ने दोनों को अलग किया। मातु ने कान्हा को गोद में उठा लिया और आंचल से मुंह ढंक दिया। उनके लाडले को कही नजर न लग जाय। शीघ्र ही महल के भीतर लाकर हाथ-पैर धोया और मक्खन मलाई के साथ भांति-भांति के पकवान उनके सम्मुख रख दिए। श्रीकृष्ण-बलराम ने छककर भोज खाया। मातु यशोदा और मातु रोहिणी एकटक इस दृश्य को देख रही थीं परन्तु हृदय तृप्त कहां हो रहा था।
श्रीकृष्ण के अलौकिक लीलाओं की सूचना कंस तक नियमित रूप से पहुंच रही थी। उसने बालक श्रीकृष्ण के वध के लिए अनेक योजनायें बनाईं, अनेक असुर नियुक्त किए परन्तु सारे प्रयास असफल रहे। उसके पास असुरों की एक सेना थी। कंस ने हार नहीं मानी। उसने अघासुर को याद किया। अघासुर तत्काल कंस के सम्मुख उपस्थित हुआ। कंस ने उसे डांटते हुए कहा –
“अघासुर! तुम भोजन करने और सोने में ही अपना सारा समय नष्ट करते हो। क्या तुम्हें यह ज्ञात नहीं कि गोकुल के एक बालक ने खेल-खेल में ही तुम्हारी बड़ी बहन पूतना और तुम्हारे अग्रज बकासुर का वध कर दिया है? क्या तुम्हें उस शत्रु से प्रतिशोध लेने का कोई उपक्रम नहीं करना चाहिए?”
अघासुर अपनी बड़ी बहन और अग्रज के वध के कारण अत्यन्त व्यथित था। उसने उत्तर दिया –
“महाराज! आपके राज्य के बाहर मैं अपनी इच्छा से विचरण करता हूँ और अपनी मर्जी से सारे कार्य करता हूँ। अमृतपान करनेवाले देवता भी मुझसे भयभीत रहते हैं, परन्तु आपके राज्य में बिना आपकी अनुमति के मैं चींटी का भी वध नहीं करता। आप मुझे आज्ञा दीजिए। कुछ ही पलों में बहन पूतना और अग्रज बकासुर के हत्यारे को यमलोक का अतिथि बना दूंगा।”
“तुम्हारी बहन और अग्रज का हत्यारा और कोई नहीं, गोकुल के नन्द महाराज का पुत्र कृष्ण है। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि वृन्दावन जाकर उस बालक का शीघ्रातिशीघ्र वध कर अपना प्रतिशोध लो। इस कार्य के लिए तुम इसी समय वृन्दावन के लिए प्रस्थान करो।”
कंस के चरणों में मस्तक नवाकर अघासुर ने तत्क्षण वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया।
रोचक कड़ी !