सामाजिक

संस्कार

शाम का समय, बाजार में काफी चहल-पहल थी। कुछ लोग खरीदारी कर रहे थे, कुछ लोग वहीं खडे खोमचेवालों के पास खा रहे थे।

सहसा सबका ध्यान एक तरफ से आ रही चिल्लाने की आवाज पर गया। एक आदमी पास खडी बूढ़ी भिखारन पर बुरी तरह से चिल्ला रहा था। वह अपने बच्चों के साथ शायद उस ठेले पर कुछ खा रहा था और वह भिखारन वहां जाकर उससे मांगने लगी, तो वह उस पर बरस पडा। वह बूढ़ी अम्मा तो सिर नीचा किये चली गयी वहां से, मगर यह सब देखकर अच्छा नहीं लगा, क्योंंिक यह आप पर निर्भर करता है कि आप चाहें किसी को कुछ ना भी दें, मगर इस तरह किसी को फटकारना ठीक नहीं। किन्तु अफसोस मैं कुछ कर भी नहीं पायी।

मुझे अपने बचपन के दिन याद आ गये। जब भी कभी कोई मांगने वाला दिखता, तो हमारे घर के बडे कुछ खाना या पैसे हम बच्चों में से किसी के हाथ में देते कि दे दो। जब हम मंदिर जाते तब भी दानपेटी में हमारे हाथ से पैसे डलवाते या पंडित को दक्षिणा देने के लिए कहते। बाकी बच्चे तो चुपचाप उनकी बात मान लेते, मगर मेरी शुरु से ही सवाल करने की प्रवृत्ति रही है और जब तक बात को ठीक से समझ ना लूं मन शांत नहीं होता। किन्तु यह एक ऐसा सवाल था जिस पर हमेशा मेरी माँ का एक ही जवाब होता कि यह बताकर समझाने वाली बात नहीं है, जब बडी हो जाओगी तब खुदबखुद समझ जाओगी।

और आज सच में यह बात समझ आ गयी कि क्यूं घर के बडे बच्चों के हाथों से दान दिलवाया करते हैं। दर असल यह एक तरह के संस्कार सिखाने का तरीका है जो कि बच्चों में बताकर या समझाकर नहीं डाला जा सकता। घर के बडे बच्चों के हाथों से दान दिलाकर या मंदिर में चढावा चढाकर उनमें एक तरह से देने की प्रवृत्ति या यूं कहें ंिक मानवता का बीज बोते हैं, ताकि बच्चे स्वार्थी बनकर सिर्फ अपने बारे में ना सोचें, बल्कि मिल बांटकर रहने की उनमें आदत हो। आज मेरी भी यही आदत है कि मैं अपनी बच्ची के हाथ से दिलवाती हूं और वह भी जब मुझसे वैसे ही सवाल करती है, तब मैं भी माँ की बात को दोहरा देती हूं।

फर्क यह नहीं पड़ता कि हम क्या दे रहे हैं और कितना दे रहे हैं। होता यह है कि हम अपने बच्चों में देने की भावना को जागृत कर उनमें स्वार्थी होने की भावना का दमन कर रहे हैं, ंिजससे कहीं न कहीं आगे जाकर यह संस्कार उनका भला ही करेंगे। आज उस भले आदमी ने चाहे उस बूढ़ी औरत को फटकारकर अपनी ताकत का सबूत दिखाया, मगर उसके बच्चों ने इससे क्या सीखा संस्कार या स्वार्थी होना??

प्रिया वच्छानी

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - priyavachhani26@gmail.com

4 thoughts on “संस्कार

  • प्रिया वच्छानी

    आप सभी आदरणीयो का आभार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लघु कथा के रूप में यह लेख अच्छा लगा. जो बच्चों में संस्कार डाले जाते हैं वोही बड़े हो कर उसी तरह करते हैं .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर लेख. हिन्दू सभ्यता में बच्चों में बहुत से संस्कार इसी तरह डाले जाते हैं. संस्कारों से ही बच्चे का आचरण निश्चित होता है.
    मुसलमानों द्वारा बकरीद पर क़ुरबानी के नाम पर पशुओं की हत्या का मैं इसीलिए घोर विरोधी हूँ, क्योंकि उससे घर घर में बच्चों में क्रूरता के संस्कार डाले जाते हैं. वे ही बच्चे आगे चलकर आतंकवादी और हत्यारे बनते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    सराहनीय रचना। धन्यवाद। यह सत्य सिद्धांत है कि हमारे जीवन के स्थायित्व में अगणित जीवनो का पुरुषार्थ जुड़ा हुवा है। हम ऐसे अज्ञात मनुष्यों ही नहीं अपितु पशु,पक्षियों, स्थावर वनस्पति वा जड़ जगत जिसमे अग्नि, वायु, जल, भूमि आदि सम्मिलित हैं, ऋणी है जिससे कदापि मुक्त नहीं हो सकते। इसलिए हमारी संस्कृति में संस्कार, सेवा वा उपकार का महत्व है। यज्ञ भी सेवा वा परोपकार की भवन से किया जाता है जिससे प्राण वायु शुद्ध होकर अगणित प्राणियों को अनेकविध लाभ होता है। पुनर्जन्म के सिद्धांत के अनुसार हम कर्मानुसार मनुष्य, पशु, पक्षी वा अमीर-गरीब भिखारी आदि बनते रहते हैं। आज के गरीब वा भिखारी पूर्व जन्म के अधर्मी, अहंकारी वा कंजूस लोग हो सकते हैं। अतः हमें अपना भविष्य वा आगामी जीवन सुधारने के लिए सत्कर्म, संध्या, अग्निहोत्र यज्ञ] धर्म, सेवा, परोपकार वा दान आदि यथा शक्ति अवश्य करना चाहिए। आपका लेख निश्चय ही प्रेरणादायक है। ऐसे अवसरों पर मेरी अनुभूति भी वैसी ही होती है जैसी कि आपको हुई।

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