आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 21)
इस कटु अनुभव के बाद एच.ए.एल. में मेरे बने रहने का कोई अर्थ नहीं था और मैं वहाँ से भागने का मौका तलाशने लगा। सौभाग्य से वह अवसर शीघ्र ही आ गया। जून या जुलाई 1988 में इलाहाबाद बैंक के बैंकिंग सेवा भर्ती बोर्ड, लखनऊ ने कम्प्यूटर विभाग के डिप्टी मैनेजर के पदों के लिए आवेदन पत्र माँगे। मैंने उसमें आवेदन करने का निश्चय किया। आवेदन पत्र की एक प्रति तो मैंने सीधे भेज दी और दूसरी प्रति एच.ए.एल. से अग्रसारित करायी। उस समय तक वहाँ यह नियम बन चुका था कि हर आफीसर एक साल में अधिक से अधिक दो आवेदन पत्र बाहर की कम्पनियों में नौकरी के लिए अग्रसारित करा सकता है। मैंने इस नियम का फायदा उठाया और सरलता से अपना आवेदन पत्र अग्रसारित करा लिया।
इस पद के लिए लखनऊ में ही इंटरव्यू था। उसका बुलावा मेरे पास अक्टूबर 1988 में आया और मैं इंटरव्यू दे भी आया। इंटरव्यू अच्छा हुआ था। मुझसे अन्य बातों के अलावा यह भी पूछा गया था कि मैं एच.ए.एल. क्यों छोड़ना चाहता हूँ। मैंने जवाब दिया था- ‘मैं एच.ए.एल. नहीं छोड़ना चाहता, मैं वहाँ पूरी तरह संतुष्ट हूँ, लेकिन यह ऊँची जिम्मेदारी है, इसलिए मैंने आवेदन किया है।’ मेरे उत्तर से वे खुश हो गये। इंटरव्यू अच्छा होने से मुझे आशा थी कि मेरा चयन हो जायेगा।
इसके कुछ समय बाद ही मेरी बहिन गीता के विवाह की तैयारियाँ चलने लगीं। 2 दिसम्बर को आगरा में ही उसका विवाह हुआ। मैं उसके विवाह में शामिल होकर 6 दिसम्बर को लखनऊ लौट आया। लौटते ही मुझे घर के पते पर एक रजिस्टर्ड पत्र मिला, जिसमें इलाहाबाद बैंक मंडलीय कार्यालय, लखनऊ मेें उप प्रबंधक (ईडीपी) के पद पर मेरा चयन होने की सूचना दी गयी थी और मुझे 28 दिसम्बर को उपस्थित होने का आदेश दिया गया था। यह पत्र पाने के बाद मेरी प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था। सबसे पहले तो मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया। फिर पोस्टमैन का मुँह मीठा कराया और उसे 11 रु. भेंट किये।
उस दिन मुझे बी-शिफ्ट में अर्थात् दोपहर बाद ढाई बजे आॅफिस जाना था। जाते ही मैंने पहला काम यह किया कि अपनी इस्तीफा एच.ए.एल. को सौंप दिया। उसमें मैंने अनुरोध किया था कि मुझे 27 दिसम्बर 1988 की शाम तक नौकरी से मुक्त कर दें, क्योंकि मैंने इलाहाबाद बैंक में नौकरी स्वीकार कर ली है। इस्तीफा देने से पहले मैंने किसी से भी सलाह नहीं ली, न विष्णु जी से, न गोविन्द जी से और न ही मेहता जी से। जब उन्हें पता चला तो गोविन्द जी नाराज हुए कि थोड़े से आर्थिक लाभ के लिए मैं एच.ए.एल. की अच्छी नौकरी क्यों छोड़ रहा हूँ। विष्णु जी और मेहता जी मेरे निर्णय से सहमत थे। उस समय यह नियम था कि नौकरी छोड़ने के लिए कम से कम 3 माह का नोटिस देना आवश्यक था, नहीं तो तीन माह का वेतन देना पड़ता था। मैंने केवल 20 दिन का नोटिस दिया था, इसलिए मुझसे कहा गया कि 70 दिन का वेतन जमा करो। मैंने इधर-उधर से एकत्र करके 70 दिन का वेतन जमा कर दिया। मेरे पास काफी छुट्टियाँ बकाया थीं, जिनका पैसा मुझे मिलने वाला था, इसलिए मुझे 70 दिन का वेतन जमा करने में कोई परेशानी नहीं हुई।
हमारे मुख्य प्रबंधक श्री आर.के. तायल साहब को मेरे इस्तीफे से बहुत धक्का लगा। एच.ए.एल. में मेरा चयन उन्होंने ही किया था और बाद में ही कई अवसरों पर उन्होंने मेरी सहायता की थी। वे चाहते थे कि मैं अपना इस्तीफा वापस ले लूँ। उन्होंने मुझसे कहा कि इस निर्णय के धन (+) और ऋण (-) बिन्दुओं पर विचार करके निर्णय करो। उन्होंने विचार विमर्श के लिए मुझे अपने घर भी बुलाया, परन्तु मैं अपने इस्तीफे पर अडिग था, इसलिए उनके घर भी नहीं गया।
मेरे सभी साथी मुझे बैंक की नौकरी मिलने से खुश थे और इसलिए भी कि मैं एच.ए.एल. के दमघोंटू वातावरण से बाहर जा रहा था। बैंक में जाने से मुझे कई फायदे भी थे। सबसे बड़ा फायदा तो यह था कि मैं ऊँचे पद पर जा रहा था और उसमें लगभग 1 हजार रुपये महीने वेतन अधिक था। दूसरा लाभ यह था कि बैंक का कार्य का समय सुबह 10 बजे से शुरू होता था। इससे प्रातः शाखा जाने और नाश्ता वगैरह करने का मुझे पर्याप्त समय मिलता था। पोस्टिंग लखनऊ में ही थी, यह अतिरिक्त फायदा था। बैंक की नौकरी में और भी अनेक लाभ होते हैं, जो बाजपेयी जी ने मुझे बताये थे, क्योंकि तब तक उनकी बड़ी पुत्री गीता भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी बन गयी थी। नकारात्मक बिन्दु केवल एक था कि बैंक में स्थानान्तरण बहुत होते हैं, परन्तु मुझे उसकी चिन्ता नहीं थी।
वैसे मैं बैंक में नौकरी प्रारम्भ करते समय कुछ नर्वस था कि पता नहीं वहाँ का वातावरण कैसा होगा। इसलिए 28 तारीख से कुछ दिन पहले ही बाजपेयी जी मुझे इलाहाबाद बैंक के कम्प्यूटर विभाग से मिलाने ले गये। वहाँ के अधिकारियों से मेरा परिचय हुआ, तो लगा कि वातावरण ठीक है। फिर भी मैंने अपना मनोबल बनाए रखने के लिए आगरा से अपने पिताजी और माताजी को बुला लिया। आवश्यक कागज तैयार करने के बाद मैंने 28 दिसम्बर 1988 को इलाहाबाद बैंक में सेवा करनी शुरू कर दी और आज तक कर रहा हूँ।
इससे पहले मुझे एच.ए.एल. से अपना हिसाब करना था। सबसे पहले तो मुझे वहाँ के सभी विभागों से यह लिखवाना था कि मेरे पास उनकी कोई वस्तु बकाया नहीं है। यह एक बेकार की खानापूरी थी, जो मैंने 2 या 3 दिन में कर दी। फिर अपनी छुट्टियों के पैसे लिये और प्रोविडेंट फंड का हिसाब किया। पी.एफ. का हिसाब एच.ए.एल. में ही रखा जाता है। मैं चाहता तो उसे इलाहाबाद बैंक में स्थानांतरित करा सकता था, उसी प्रकार ग्रेच्युटी को भी स्थानांतरित करा सकता था। परन्तु मैंने दोनों का पैसा लेना ही बेहतर समझा। कुछ इसलिए भी कि मुझे 70 दिन के वेतन का घाटा पूरा करना था। 27 दिसम्बर की शाम तक एच.ए.एल. में मेरा पूरा हिसाब हो गया और मुझे आवश्यक पत्र मिल गया, जो बैंक में जमा करना था।
मेरे जाने से 2 या 3 दिन पूर्व ही एच.ए.एल. के साथियों ने विभाग में मेरी विदाई कर दी। वैसे मैं चाहता था कि विदाई 27 दिसम्बर को ही की जाये, परन्तु उन्होंने 24 दिसम्बर को ही निपटा दिया, क्योंकि उस दिन एक अन्य अधिकारी की भी विदाई होने वाली थी। एक बार तो मैंने सोचा कि मैं विदाई लेने से ही इनकार कर दूँ। फिर सोचा कि जाते-जाते क्यों इनका मन तोड़ा जाये, इसलिए मैं विदाई समारोह में शामिल हुआ। मैंने अपने संक्षिप्त भाषण में सबको हार्दिक धन्यवाद दिया। विशेष तौर से मैंने आचार्य जी और राव साहब को औपचारिक धन्यवाद दिया तथा अपनी गलतियों के लिए क्षमा माँगी। मुझे भेंट में एक नाइट लैम्प दी गयी थी। उसी दिन रात्रि को अधिकारी क्लब में हमारे लिए डिनर की व्यवस्था की गयी थी। मैं उसमें भी शामिल हुआ और एक दीवाल घड़ी भेंट में पायी।
27 दिसम्बर 1988 को सायं 4.30 बजे जब मैं अन्तिम बार एच.ए.एल. से जा रहा था, तो मेरी रुलाई फूट पड़ी। मैंने अपनी जिन्दगी के महत्वपूर्ण साढ़े पाँच वर्ष उन लोगों के साथ बिताये थे और यदि अन्तिम एक-डेढ़ वर्ष की अवधि को छोड़ दिया जाये, तो कुल मिलाकर वहाँ प्रसन्न ही रहा था। इसलिए मेरा भावुक होना स्वाभाविक था।
जाते समय एच.ए.एल. आफीसर्स एशोसियेशन के अध्यक्ष ने मुझसे 30 दिसम्बर की शाम को आकर एशोसियेशन की ओर से विदाई लेने का अनुरोध किया, क्योंकि उस दिन 2-3 अन्य अधिकारियों की भी विदाई होने वाली थी। मैंने स्वीकार कर लिया और उस दिन अपने बैंक के मुख्य प्रबंधक श्री मोहन चन्द्र जोशी की अनुमति लेकर उस विदाई समारोह में शामिल हुआ। यह कार्यक्रम औपचारिक ही रहा और मैंने अपने केवल 1 मिनट के भाषण में उन्हें धन्यवाद और अपनी शुभकामनाएँ दीं। भेंट में मुझे एक पेन सेट दिया गया और चाय-नमकीन-मिठाई का नाश्ता हुआ। उस समारोह में तायल साहब भी मंच पर विराजमान थे, परन्तु उनसे मेरी नमस्ते मात्र हुई और उन्होंने मुझसे कोई विशेष बात नहीं की।
(जारी…)
विजय भाई , वैसे तो आप की शखसीअत से ही पता चल जाता है कि एच ए एल में आप ने कितनी स्ट्रगल की , १९८८ से आप बैंकिंग में हैं , इस से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि आप ने यहाँ आ कर बहुत उन्ती की होगी.
सही समझा भाई साहब आपने. बैंक की सेवा में मैं बहुत प्रसन्न हूँ.
आपके जीवन में आये महत्वपूर्ण मोड़ के बारे में पढ़ा। शायद यह नियति का खेल रहा हो। इसमें नियति के साथ आपके पुरुषार्थ और प्रारब्ध सभी का मिला जुला परिणाम लगता है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार. मान्यवर ! प्रभु जो करता है अच्छा ही करता है. बैंक में आकर मुझे बहुत सफलताएँ मिलीं, जो एच.ए.एल. में शायद न मिल पातीं. इनके बारे में आगे पढ़ने की कृपा करें.
धन्यवाद जी।