गीत : कूजे-दो-कूजे में….
कूजे-दो-कूजे मे बुझने वाली मेरी प्यास नहीं,
बार-बार ‘ला ला’ कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं ।
हटा सामने से मेरे ये सागर, पैमाना, प्याले,
ले आ साकी मदिरा के घट रख कर कटि पर, बल डाले,
हर संशय को मिटा हृदय से कलश हाथ मे कर साकी,
मेरी क्षमताओं पर शायद तुझको है विश्वास नहीं ।
कूजे-2-कूजे मे……
पूछ मुझे मत साकीबाला, और दिये जा, और दिये जा,
मदमाती आँखों से कह कर, ‘और पिये जा, और पिये जा’ ,
किंचित मै ही बोलूँगा तुमको रुक जाने को, तब तक,
जब तक हो जाता है मुझको मदिरा का आभास नहीं ।
कूजे-2-कूजे मे…….
डगमग पड़ते कदमों से मै चलूँ राह पर सम्हल सम्हल,
उठूँ-गिरूँ फिर गिरूँ-उठूँ मै थाम तेरा, साकी, आँचल,
उस हद तक तू ले चल मुझको साकी अपने कौशल से,
जहाँ पहुँच कथनी-करनी का रहता है एहसास नहीं ।
कूजे-2-कूजे मे…….
यौवन मदिरा, साकी माया, इच्छाएँ हैं प्यास मेरी
पौरुष के बल इच्छाओं को पा लेने की आस मेरी ।
रूप-राशि, बल, पौरुष, यौवन से ही सारे उपक्रम हैं,
जिस दिन ये सब खो जाएंगे, प्यास नहीं और आस नहीं ।
कूजे-2-कूजे मे……
इच्छाओं का, आशंकाओं का ये कूट महासागर,।
हर पल डगमग डोल रही जीवन नैया जिसके अंदर ।
इच्छाओं के मोहजाल मे क्या क्या संचय करते हम,
यद्यपि दुनिया आनी-जानी, स्थायी ये आवास नहीं ।
कूजे-2-कूजे मे…..
बढ़िया गीत. पीने के माध्यम से आपने जीवन के अनेक सत्यों को प्रकट किया है.
धन्यवाद
बहुत खूब , भाई आप की कविता तो पब्ब में बैठ कर सुनाने वाली है.
धन्यवाद । एक जाम मेरे नाम लेकर सुनाइये, मज़ा दोगुना हो जाएगा ।