गीत/नवगीत

गीत : कूजे-दो-कूजे में….

कूजे-दो-कूजे मे बुझने वाली मेरी प्यास नहीं,
बार-बार ‘ला ला’ कहने का समय नहीं, अभ्यास नहीं ।
हटा सामने से मेरे ये सागर, पैमाना, प्याले,
ले आ साकी मदिरा के घट रख कर कटि  पर, बल डाले,
हर संशय को मिटा हृदय से कलश हाथ मे कर साकी,
मेरी क्षमताओं पर शायद तुझको है विश्वास नहीं ।
         कूजे-2-कूजे मे……
पूछ मुझे मत साकीबाला, और दिये जा, और दिये जा,
मदमाती आँखों से कह कर, ‘और पिये जा, और पिये जा’ ,
किंचित मै ही बोलूँगा तुमको रुक जाने को, तब तक,
जब तक हो जाता है मुझको मदिरा का आभास नहीं ।
       कूजे-2-कूजे मे…….
डगमग पड़ते कदमों से मै चलूँ राह पर सम्हल सम्हल,
उठूँ-गिरूँ फिर गिरूँ-उठूँ मै थाम तेरा, साकी, आँचल,
उस हद तक तू ले चल मुझको साकी अपने कौशल से,
जहाँ पहुँच कथनी-करनी का रहता है एहसास नहीं ।
         कूजे-2-कूजे मे…….
यौवन मदिरा, साकी माया, इच्छाएँ हैं प्यास मेरी
पौरुष के बल इच्छाओं को पा लेने की आस मेरी ।
रूप-राशि, बल, पौरुष, यौवन से ही सारे उपक्रम हैं,
जिस दिन ये सब खो जाएंगे, प्यास नहीं और आस नहीं ।
       कूजे-2-कूजे मे……
इच्छाओं का, आशंकाओं का ये कूट महासागर,।
हर पल डगमग डोल रही जीवन नैया जिसके अंदर ।
इच्छाओं के मोहजाल मे क्या क्या संचय करते हम,
यद्यपि दुनिया आनी-जानी, स्थायी ये आवास नहीं ।
      कूजे-2-कूजे मे…..

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

4 thoughts on “गीत : कूजे-दो-कूजे में….

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया गीत. पीने के माध्यम से आपने जीवन के अनेक सत्यों को प्रकट किया है.

    • मनोज पाण्डेय

      धन्यवाद

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब , भाई आप की कविता तो पब्ब में बैठ कर सुनाने वाली है.

    • मनोज पाण्डेय

      धन्यवाद । एक जाम मेरे नाम लेकर सुनाइये, मज़ा दोगुना हो जाएगा ।

Comments are closed.