वक़्त
वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया
आईने में खुद को ऐसे उतारता ही गया
मेरी आँखों से हटा जो भरम का परदा यारो
टूटकर बिखरे हुए मैं ख्वाब सवारता ही गया
मेरी साखों पे झूले हुए हसीं लम्हे
मेरी बाहों से झड़कर कुछ ऐसे गिरे
जैसे पत्थर कोई मुझपर हो मारता ही गया
वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया
साथ छूटे हुए गुजरा नहीं एक पल भी
मैं उसी ठौर पे फिर से आ बैठा
जिस जगह से मैं उसे पुकारता ही गया
वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया
आया ना लौटकर मगर वो मेरा माझी
उस किनारे पे मैं भी रहा अकेला तनहा
खुदको उन लहरों में मैं उतारता ही गया
वक़्त मुझको मैं वक़्त को गुजारता ही गया
____सौरभ कुमार
अच्छी कविता ! जो वक्त को बर्बाद करते हैं, वक्त उनको बर्बाद कर देता है.
बिलकुल सत्य जी