आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 23)

वाराणसी में पर्यटक बहुत आते हैं। प्रमुख तीर्थ होने के कारण देशी पर्यटक तो आते ही हैं, विदेशी पर्यटक भी बहुत आते हैं। हम आगरा से वाराणसी प्रायः गंगा-यमुना एक्सप्रेस से आया-जाया करते थे। उसमें बहुत से विदेशी भी हमारे साथ यात्रा करते थे। मैं हालांकि सुन नहीं सकता, लेकिन होठों को पढ़ सकने की अपनी विशेषता के कारण मैं उनसे अंग्रेजी में कुछ बातें कर लेता था। मुझे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते देखकर मेरी श्रीमतीजी आश्चर्यचकित हो जाती थीं। उन विदेशियों के बारे में मेरे कई संस्मरण हैं, लेकिन उनका यहाँ उल्लेख करना व्यर्थ है। कई बार हिन्दी जानने वाले विदेशी भी मिल जाते थे। उनमें से एक ने मुझे हिन्दी में लिखकर अपना नाम बताया था- जाॅन फाॅन स्टीफन। उसने मुझे यह भी बताया था कि ‘फाॅन’ को रोमन लिपि में ‘वाॅन’ लिखा जाता है, लेकिन ‘फाॅन’ पढ़ा जाता है। मैं यह बात पहले से जानता था, परन्तु उसने जिस तरह शुद्ध हिन्दी में लिखकर बताया, उससे मैं चकित रह गया।

एक बार एक विदेशी नवयुवक उस यात्रा का पूरा आनन्द ले रहा था। हर बार जब भी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकती थी, तो वह आगे के दरवाजे से उतरकर डिब्बे के सामने से ‘चाऽऽऽय…’ की आवाज लगाता हुआ निकलता था और पीछे के दरवाजे से चढ़ता था। इस पर हमें बड़ा मजा आता था। एक बार तीन विदेशी लड़कियों से हमारी घनिष्टता हो गयी। जिस दिन हम आगरा पहुँचे, उसी दिन रात को सदर के दिवाली मेले में वे तीनों लड़कियाँ हमें फिर मिल गयीं। हमें वहाँ देखकर वे बहुत खुश हुई थीं।

वाराणसी में जब कोई किसी से मिलता है, तो सबसे पहले यही पूछता है- ‘और क्या हाल है?’ पहले तो मैं चकराता था कि अभी तो बात शुरू भी नहीं हुई है, यह ‘और’ कहाँ से आ गयी। लेकिन बाद में पता चला कि इस बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में ‘बाबा की दया है’ यह बात हर जगह हर समय हर परिस्थिति में हर व्यक्ति द्वारा कही हुई मानी जाती है। इसलिए बात इससे आगे चालू की जाती है कि इसके अलावा और क्या हाल-चाल है? इसके जवाब में प्रायः यही कहा जाता है- ‘बस, बाबा की ही दया है।’

वाराणसी से थोड़ी ही दूर पर सारनाथ नामक प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है, जहाँ भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना पहला उपदेश दिया था। यहाँ एक स्तूप भी बना हुआ है, जिसमें कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के दाँत रखे हुए हैं। सारनाथ बड़ी सुन्दर और शान्त जगह है। जब भी हमारा मन करता था, हम वहाँ चले जाते थे। वहाँ किसी महल या बौद्ध विहार के खंडहर हैं। मैं इन खंडहरों में बहुत घूमा करता था। अशोक की एक लाट के टुकड़े भी वहाँ रखे हुए हैं। वहीं पास में एक संग्रहालय है और एक जैन मंदिर भी है। संग्रहालय में अशोक की लाट का शीर्ष भाग अर्थात् चार सिंह रखे हुए हैं, जो हमारा राष्ट्रीय चिह्न है। सारनाथ में एक छोटा सा चिड़ियाघर भी बनाया गया है।

काशी के बारे में कहा जाता है कि यदि कोई कष्ट न हो और मजबूरी न हो, तो उसको छोड़ने का विचार भी नहीं करना चाहिए। कहावत है-
          चना चबैना गंगजल जो पुरबै करतार।
          काशी कबहुँ न छाँड़िये विश्वनाथ दरबार।।
अर्थात् यदि खाने को चना-चबैना मिल जायें और पीने को गंगाजल मिल जाये, तो कभी भी काशी नहीं छोड़नी चाहिए।

मैं लगभग साढ़े छः वर्ष वाराणसी में रहा और मेरा यह समय प्रायः आनन्दपूर्वक ही गुजरा। मेरे ऊपर बाबा विश्वनाथ की कृपा प्रारम्भ से ही बनी रही। यहीं मुझे कई सफलताएँ मिलीं, जिनका उल्लेख आगे करूँगा। इससे पहले इलाहाबाद बैंक के अपने साथियों का परिचय देना उचित होगा।

हमारे कम्प्यूटर सेक्शन में उस समय 6 अधिकारी थे, सभी स्केल 1 के। मैं स्केल 2 में होने के कारण स्वाभाविक रूप से विभाग प्रमुख था। मेरे सहयोगी अधिकारियों के नाम थे- सर्वश्री राकेश क्वात्रा, अनिल कुमार श्रीवास्तव, सुधीर श्रीवास्तव, अतुल भारती, राम कुमार जैन और प्रफुल्ल चन्द्र पंडा। ये सभी बहुत सहयोगात्मक थे, हालांकि सभी के स्वभाव और प्रकृति भिन्न-भिन्न थी। सभी कम्प्यूटर के अच्छे जानकार थे और काफी मेहनती भी थे, जैसा कि प्रत्येक बैंक अधिकारी से अपेक्षा की जाती है। इनमें से श्री राकेश क्वात्रा पंजाबी थे और जल्दी ही उनका स्थानांतरण लुधियाना अथवा चंडीगढ़ हो गया था। उसके बाद उनसे मिलने का अवसर नहीं मिला है। श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव और श्री अतुल भारती लम्बे समय तक मेरे सहयोगी रहे। ये दोनों मेरे सभी सहयोगियों में श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। श्री अतुल भारती बाद में कानपुर में भी काफी समय तक मेरे साथ रहे।

वैसे मुझे श्री आर.के. जैन का सभी कार्यों में सबसे अधिक सहयोग मिलता था। उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था और वे काफी व्यवहारकुशल भी थे। मैं इसका पूरा लाभ उठाता था और विभाग की और विभाग से बाहर की तमाम समस्याओं को हल करने में उनकी सहायता लेता था। परन्तु शीघ्र ही उन्होंने अपना स्थानांतरण प्रधान कार्यालय करा लिया था। उनके जाने से मैं खुश नहीं था, लेकिन वे स्वयं जाना चाहते थे। बाद में वे बैंक को छोड़कर किसी प्राइवेट कम्पनी में कार्य करने लगे थे। आजकल शायद फरीदाबाद में हैं।

श्री प्रफुल्ल चन्द्र पंडा उड़ीसा के थे और कुछ समय बाद ही उनका स्थानांतरण बेहरामपुर क्षे.का. में हो गया था। श्री सुधीर श्रीवास्तव का स्थानांतरण इलाहाबाद क्षे.का. में हो गया था। वे वहाँ जाना नहीं चाहते थे। दूसरा विकल्प श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव थे, परन्तु वे भी इलाहाबाद नहीं जाना चाहते थे। उस समय मैं वहाँ नया था। इसलिए मैंने प्रस्ताव रखा कि यदि इन दोनों में से कोई भी इलाहाबाद नहीं जाना चाहता, तो मैं स्वयं इलाहाबाद जाने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरे लिए तो वाराणसी और इलाहाबाद में कोई विशेष अन्तर नहीं था। परन्तु तत्कालीन सहायक महा प्रबंधक श्री एन.के. सूद ने इसे स्वीकार नहीं किया। अन्त में सुधीर जी को ही जाना पड़ा। इलाहाबाद उनके लिए शुभ नहीं रहा। वहाँ जाते ही उनकी श्रीमतीजी बीमार हो गयीं। स्वयं सुधीर जी भी बीमार से रहने लगे और बच्चे का स्वास्थ्य भी बिगड़ गया। काफी प्रयासों के बाद उन्होंने अपना स्थानांतरण लखनऊ कराया, जहाँ उनका अपना घर है।

(पादटीप : श्री सुधीर श्रीवास्तव इस समय भोपाल मंडलीय कार्यालय में सहायक महा प्रबंधक हैं. लखनऊ में उनकी कोठी है. यहाँ आने पर उनसे भेंट हो जाती है.)

उस समय मेरे साथ केवल 2 अधिकारी रह गये थे- श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव और श्री अतुल भारती। इसके कुछ समय बाद श्री संजय माथुर दूसरे विभाग से स्थानांतरित होकर हमारे विभाग में आ गये। इस प्रकार मेरे वाराणसी छोड़ने तक मेरे विभाग में मुझे मिलाकर 4 अधिकारी रहे।

श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं। उस समय फ्रेंचकट दाढ़ी रखते थे। उनका व्यवहार सभी के प्रति बहुत अच्छा था। वे अपने कार्य में योग्य तो हैं ही, बहुत कर्मठ भी हैं। इसलिए काफी लोकप्रिय थे। मैं तो नाम का विभाग प्रमुख था, विभाग की अधिकांश समस्याओं और कार्यों को वे ही निपटाते थे। उनके पिताजी अध्यापक थे, अब अवकाश प्राप्त कर चुके हैं। वे हमारे कार्यालय में प्रायः आया करते थे। मैं उन्हें अपने पिताजी जैसा ही सम्मान देता था, जिसके वे वास्तव में पात्र थे। अनिल जी के दो पुत्र हैं- राॅबिन तथा छोटू। दोनों बहुत ही योग्य हैं और अपने पिता की तरह लम्बे और सुदर्शन हैं। अभी दोनों पढ़ रहे हैं।

श्री अतुल भारती मोटा सा चश्मा लगाते हैं, परन्तु योग्यता और कर्मठता में किसी से उन्नीस नहीं ठहरते। वे कई बार अनावश्यक मेहनत भी किया करते थे, जिसके लिए मुझे मना करना पड़ता था। दुर्भाग्य से उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) की बीमारी है और इंसूलिन के इंजेक्शन लेते हैं। मैं उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा कराने की सलाह देता था, जिसे वे स्वीकार नहीं करते थे। वे मेरे साथ कानपुर में भी कई साल रहे। बाद में उनका स्थानांतरण राँची के पास किसी ग्रामीण शाखा में कर दिया गया और अभी तक वहीं हैं। उनके दो पुत्रियाँ हैं। उनकी पत्नी श्रीमती निवेदिता अपनी पुत्रियों के साथ लखनऊ में ही रहती हैं। श्री अनिल श्रीवास्तव और श्री अतुल भारती दोनों ने गोमतीनगर लखनऊ में मकान खरीद रखे हैं, जो बिल्कुल पास-पास हैं।

श्री संजय माथुर भी इन दोनों की तरह ही मेहनती और योग्य हैं। वे अभी वाराणसी में ही किसी शाखा में हैं।

(पादटीप : श्री अनिल श्रीवास्तव इस समय लखनऊ में ही हमारे बैंक की उ.प्र. ग्रामीण बैंक के सहायक महा प्रबंधक हैं. उनसे भेंट होती रहती है. श्री अतुल भारती इस समय प्रधान कार्यालय, कोलकाता में मुख्य प्रबंधक हैं. लखनऊ आने पर उनसे भी भेंट होती है. श्री संजय माथुर इस समय उप महा प्रबंधक के पद पर हैं. बहुत दिनों से उनसे मेरी भेंट नहीं हुई है. )

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

4 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 23)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह भाग भी रुचिकर लगा . आप ने सारनाथ भी देखा जो मुझे बहुत पसंद आया . जो आप ने खान्द्रात के बारे में लिखा वोह जरुर बिदेशिओं के आक्रमणकारी लोगों की वजह से होगा . आप ने बिदेशिओं के हिंदी बोलने के बारे में लिखा , मेरी भी मुलाक़ात एक दफा अंग्रेजी बुडिया के साथ हुई .वोह तो इतनी अच्छी हिंदी बोलती थी कि मैं भी इतनी अच्छी बोल नहीं सकता था . अशोक के ज़माने में बुध धर्म बहुत पर्फुल्त हुआ , मैंने भी एक दफा साँची के स्तूप देखे थे , मठ के गेट पर जो कार्विंग की हुई है उस की फोटो अभी भी मेरी एल्बम में है . इन बिदेशी लोगों ने हिन्दू और बुध धर्म का बहुत नुक्सान किया . मुझे तो ऐसा लगता है कि अजंता और अलोरा भी इसी तरह बर्बाद की गई होगी . मैंने यह भी देखि हैं और इन में एक पत्थर को काट कर ही सभी मुर्तिआन बनी हुई हैं जो हैरानी वाली बात है कि कैसे बनाई गई होंगी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. लगभग एक हज़ार वर्षों के इस्लामी शासन काल में देश भर में मूर्तियों और मंदिरों का विध्वंश किया गया था. इसीलिए भारत में ३००-४०० वर्षों से पुराना कोई मंदिर नहीं मिलता. बैंकाक (थाईलैंड) में अंकोरवाट का मंदिर विश्वप्रसिद्ध है. वह दो हज़ार वर्ष पुराना बताया जाता है. भारत में तो इससे भी भव्य मंदिर रहे होंगे.
      ताज महल भी किसी शिव मंदिर की तरह बना हुआ है. ऐसा लगता है कि पहले यह शिव मंदिर ही था. शाहजहाँ ने इस पर जबरदस्ती कब्ज़ा कर लिया और भीतर तो मुमताज की लाश गाढ़ दी और बाहर कुरआन की आयतें खुदवा दीं. बस.

  • Man Mohan Kumar Arya

    वाराणसी आगरा रेलयात्रा एवं साथियों के विवरण पढ़कर लगा कि आपकी यात्रा वा कार्यालय में मैं भी सम्मिलित हूँ। आप विदेशियो से फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे, जानकार प्रसन्ना हुई। यह योग्यता बहुत कम लोगो में होती है। आत्मकथा के आज के विवरण के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर !

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