आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 24)

कम्प्यूटर अधिकारियों के अलावा जिस अधिकारी से मेरी विशेष घनिष्टता थी, वे थे श्री नरेन्द्र प्रसाद धस्माना। वे हमारे हिन्दी अधिकारी थे, जिसे राजभाषा अधिकारी कहा जाता है। उनकी रुचि आध्यात्मिक और धार्मिक विषयों की तरफ अधिक थी। प्रायः आचार्य रजनीश (ओशो) की मोटी-मोटी किताबें पढ़ा करते थे। हिन्दी में मेरी भी रुचि होने के कारण हम मिलकर कई कार्य करते थे। कई बार हमने मिलकर वाराणसी मंडल की राजभाषा पत्रिका ‘इला भारतेन्दु’ प्रकाशित करायी थी। मैं उन दिनों हिन्दी कम्प्यूटरों पर कुछ शोधकार्य कर रहा था। श्री नरेन्द्र जी मुझे इसमें काफी प्रोत्साहित किया करते थे। बाद में उनका स्थानांतरण मेरठ हो गया और वहाँ से प्रधान कार्यालय, कोलकाता। उन्होंने संन्यास दीक्षा ले ली है, परन्तु बैंक सेवा कर रहे हैं। वे अनुवाद कार्य में काफी दक्ष हैं।

(पादटीप : श्री धस्माना अब अवकाशप्राप्त कर चुके हैं और अपने घर मेरठ में रहकर whatsapp पर सक्रिय हैं.)

अधिकारियों के अतिरिक्त उस कार्यालय में जिनका उल्लेख करना आवश्यक लगता है, वे थीं कुमारी डाॅली चक्रवर्ती। वे उस समय लिपिक अर्थात् बाबू थीं और डिस्पैच का कार्य किया करती थीं। वे काफी योग्य और मेहनती हैं, इसलिए मैं उन्हें असिस्टेंट आॅफीसर कहा करता था। आवश्यक होने पर, जैसे लेखाबन्दी के समय, वे हमारे विभाग के कार्यों में बहुत सहायता किया करती थीं। वे हालांकि चश्मा लगाती थीं, परन्तु काफी आकर्षक लगती थीं। इससे प्रारम्भ में मैं उनकी ओर आकर्षित हो गया था। मैं सोचा करता था कि यदि कभी मैं किसी ऊँचे पद पर पहुँचा, तो डाॅली जी को ही अपना व्यक्तिगत सहायक (पी.ए.) बनाऊँगा। उन्हें हिन्दी का अच्छा ज्ञान था और शे’र तथा कविताएँ भी लिखा करती थीं। हिन्दी दिवस के अवसर पर होने वाली प्रतियोगिताओं में वे हर वर्ष कोई न कोई पुरस्कार जीत लेती थीं। मैंने उनको लक्ष्य करके एक कविता भी लिखी थी, जो निम्न प्रकार है-
जाने क्या बात है
तुम्हारी उदास आँखों में
झाँकता हूँ जब भी मैं काँच के भीतर
दहला देता है तुम्हारी आँखों का सूनापन
खोजती हों जैसे महाशून्य में कुछ
जो भर दे इनका खालीपन
कैद हूँ मैं अपने दायरों में
दे देता नहीं तो अपना सब कुछ
और हटा देता तुम्हारा अकेलापन।

बाद में मेरा विवाह हो जाने पर मैं उनकी ओर से उदासीन हो गया था। मेरे वाराणसी छोड़ने के बाद वे आफीसर बन गयी थीं और आजकल डिपोजिटरी सैल, वाराणसी में ही कार्य कर रही हैं। विवाह उन्होंने अभी तक नहीं किया है, शायद करना ही नहीं चाहतीं। उनके ऊपर उम्र का असर होने लगा है और जवानी में ही बूढ़ी सी नजर आने लगी हैं। काफी दिनों से मैं वाराणसी नहीं गया हूँ, परन्तु उनके समाचार मिल जाते हैं।

(पादटीप : कु. डॉली चक्रवर्ती आजकल लखनऊ में सेवा शाखा में पदस्थापित हैं. कभी कभी उनसे भेंट हो जाती है.)

वाराणसी में प्रारम्भ में मैं संघ कार्यालय गोदौलिया में रहा। वहाँ कोई कष्ट नहीं था। सोने के लिए एक बड़ा सा कमरा था और खाना मैं बाहर खा लेता था। परन्तु माताजी-पिताजी सारे सामान के साथ लखनऊ में ही थे, इसलिए तुरन्त मकान लेना आवश्यक था। मजबूरी में मुझे एक कामचलाऊ फ्लैट लेना पड़ा, जो टकसाल सिनेमा के पीछे मिंट कालोनी में था। यह फ्लैट ग्राउंड फ्लोर पर था और उसमें धूप और हवा बिल्कुल नहीं आती थी। अगर इतना ही होता, तो गनीमत थी, परन्तु उसमें सीलन बहुत थी। इसलिए हम उसमें अधिक दिनों तक नहीं रह सकते थे। किसी तरह हमने उसमें 4 महीने काटे। तभी मुझे अनन्ता कालोनी में तीसरी मंजिल पर एक अच्छा फ्लैट मिल गया। हालांकि वह भी ज्यादा हवादार नहीं था, परन्तु उसके ऊपर की पूरी छत हमारी थी। इसलिए काफी आरामदायक था। पानी के लिए मकान मालिक ने ही एक अच्छी पम्प लगवा दी थी, इसलिए कोई कष्ट नहीं था।

जुलाई 1989 में अचानक मेरा विवाह तय हो गया। वैसे तो मेरी माताजी काफी दिनों से मुझे खूँटे से बाँधने की कोशिश कर रही थीं, परन्तु कोई अच्छा रिश्ता नहीं मिला था। एक रिश्तेदार ने एक लड़की बतायी थी, जो इलाहाबाद बैंक में ही सेवा करती हैं। हालांकि वे देखने में आकर्षक नहीं हैं, फिर भी अपने छोटे मामाजी श्री दाऊ दयाल जी (अब स्वर्गीय) और अपनी मम्मी के कहने पर मैं उनसे विवाह करने के लिए तैयार हो गया। लेकिन मैं ऐसी जीवन संगिनी चाहता था, जो केवल घर की देखभाल करे। मैं महिलाओं के लिए नौकरी करना तब तक उचित नहीं समझता, जब तक कि कोई मजबूरी न हो। मेरा मानना है कि घर को सँभालना पूरे समय का कार्य (फुल-टाइम जाॅब) है। इसलिए मैंने शर्त लगा दी कि उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ेगी। परन्तु उनके घरवाले इसके लिए राजी नहीं हुए। फिर मैंने प्रस्ताव किया कि यदि वे नौकरी करना चाहती हैं, तो मैं स्वयं नौकरी छोड़कर घर सँभाल लूँगा। लेकिन वे इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। तभी कुछ ऐसी बात हो गयी कि हमारे मामाजी का ही मन उनसे उचट गया। उन्हें लगा कि यह घर-परिवार ठीक नहीं है, इसलिए उन्होंने स्वयं ही उनसे मना कर दिया। इस तरह अपना पीछा छूट जाने से मुझे प्रसन्नता हुई। यह अप्रैल-मई 1989 की बात है। तब तक मैं लखनऊ में ही था।

कुछ दिन बाद जुलाई 89 में मैं घर गया। वहाँ पता चला कि हमारे गाँव दघेंटा के पास ही अनौड़ा गाँव में हमारे एक भतीजे का विवाह होने वाला है और उसकी बारात पचावर गाँव में जायेगी। मैं इस शादी में जाने को तैयार हो गया, क्योंकि एक तो सभी सम्बंधियों से मिलने का लालच था, दूसरे अपने गाँव जाने का भी मौका था, क्योंकि पचावर गाँव हमारे गाँव के बहुत निकट है। वहाँ मैं बारात में गया। पचावर गाँव में आकर मैंने अपने साथियों से इच्छा व्यक्त की कि उसी गाँव में रहने वाले मेरे प्राइमरी के शिक्षक श्री चरण सिंह (मुंशीजी) के दर्शन करना चाहता हूँ, जिनका विस्तृत परिचय मैं अपनी आत्मकथा के पहले भाग में दे चुका हूँ। मेरे दो चचेरे भाई श्री कुंज बिहारी और श्री राज कुमार इसके लिए सहर्ष तैयार हो गये। पूछते हुए हम उनके घर की ओर चले। सौभाग्य से वे वहीं मिल गये। मैंने बड़ी मुश्किल से उनके चरण स्पर्श किये, क्योंकि वे रोक रहे थे। मेरे बारे में यह जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए कि मैं बैंक में प्रबंधक बन गया हूँ। परन्तु मेरे कान ठीक नहीं हुए, इसके लिए वे दुःखी हुए। 15-20 मिनट उनसे बातें करने के बाद हम वापस आ गये।

उस रात को बारातियों के सोने की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। हल्की बरसात के कारण ठंड भी हो गयी थी। मुझे काफी ठंड लगी। ओढ़ने के लिए कुछ भी नहीं था। किसी तरह रात काटी। प्रातः होते ही मैं अपने छोटे चाचाजी श्री शिवनन्दन लाल की साइकिल पर बैठकर अपने गाँव आ गया। पचावर से हमारा गाँव मुश्किल से दो कोस है यानी 4 मील या 6 किलोमीटर। अपने घर की देहरी को छूते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी, क्योंकि मैं लगभग 6 साल बाद गाँव आया था। इससे पहले आखिरी बार मैं तब आया था जब हमारे वरिष्ठ पितामह स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी का ठीक 100 वर्ष की आयु में देहावसान हुआ था और मैं अपनी नौकरी लगने की प्रतीक्षा कर रहा था।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

7 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 24)

  • विजय भाई, बहुत रौचक एपिसोड . एक बात की मुझे ख़ुशी है कि आप ने भी गाँव में ही जनम लिया था और मैंने भी . जब आप अपने गाँव द्खेंता (सौरी फार दी स्पैलिंग) की बात करते हैं तो मैं सीधा अपने गाँव पौहंच जाता हूँ . अब मेरा अपने गाँव जाना नामुमकिन है लेकिन मेरा गाँव तो हर वक्त मेरे दिल में वसा हुआ है. कुमारी डाली की बात आप ने लिखी और कविता भी उन पर लिखी , तो आप तो भाई एक perfect रोमिओं रहे हैं जिंदगी में . हो सकता है कुमारी डाली भी आप से शादी करना चाहती थी और इसी लिए उस ने शादी नहीं कराई , मेरी उस से हमदर्दी है , हा हा हा ……………….

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, भाई साहब. मैं रोमियो जैसा कभी नहीं रहा. मेरा जिनसे लगाव था, उनका जिक्र आत्मकथा के पहले भाग में विस्तार से कर चुका हूँ. डॉली जी के लिए मेरे मन में सम्मान था, बस. उन्होंने खुद ही किसी से शादी नहीं की.

      • विजय भाई, बुरा मत्त मानियें , बस हंसी मज़ाक में ही लिख दिया था . मेरी आप पर पूरण श्रधा है . अगर मेरी बात पर आप को कोई ठेस पौहंची हो तो खिमा का याचक हूँ .

        • विजय कुमार सिंघल

          भाई साहब, क्षमा मांगकर आप मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं. मजाक मैं भी समझता हूँ. होली पर सबको छूट भी मिलती है. हा….हा….हा….हा….

          • धन्यवाद , विजय भाई.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की आत्म कथा में वर्णित घटनाएँ पढ़कर अच्छा लगा। अपने पुराने गुरूजी के प्रति आपकी श्रद्धा-भक्ति ने भी प्रभावित किया। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर !

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