धूप सा पढ़ता रहा
धूप सा पढ़ता रहा
ऑटो की तरह तुम आयी
मैं ..धूप
तुम उड़ते हुये समय को
चुनरी सा
जाते हुये …
चौक मे खड़े शहर सा
दूर तक ..देखता रह गया
घड़ी के कांटे की तरह
एक लम्बी सड़क सा बाजार मे
घूमता हुआ
कभी –
केले के छिलकों
या
टोकरी से बाहर
लुड़क आये
ताजे संतरे की तरह
लोगो की निगाहों से भी बचता रहा
पैरो के पहियों से
बनी भीड़ को
नहर सा एकसार बहते हुये
कभी –
खम्बे मे टंगे पोस्टर
पर बने चित्र की –
दो घूरती आँखों की तरह
निहारता रहा
किसी टाकीज मे
अकेले ही
पिक्चर देखने वाले
एक मात्र दर्शक की तरह
अपना मन भर बोझ ..सहता रहा
खाली गिलास की तरह
किसी ठेले के स्टूल पर
बेफिक्र सा बैठा हुआ
कभी –
अखबारों के पन्नो में
कड़ी मीठी चाय की चुस्की सा
एक हैरत हंगेज ख़बर
तलाशता रहा
इस तरह
भीड़ के मनुष्यों में
शब्दों की तरह बिखरी एक एक
कविता को
दिन भर
धूप सा पढ़ता रहा
kishor kumar khorendra
आप आए बहार आई , बहुत अच्छी कविता .
thank u bhamara ji
बहुत खूब, खोरेंद्र जी. आपकी कविता बहुत गहरे अर्थ लिये हुए है.
aabhaar