मेरा मन
क्यों बेचैन है
क्या चाहिए उसे
शायद शिकायत है
अपने आप से ही
इसी लिए असंतुष्ट
भटक रहा है
भौरों की तरह
मेरा मन
मेरा मन
देखता है
स्वर्ण पिंजर में
कैद पक्षियों को
और तुलना करता है
वेफिक्र उड़ते हुए
नील गगन में पक्षियों से
तभी एक आह
निकलती है
और तड़प उठता है
मेरा मन
मेरा मन
चाहता है पतंग उड़ाना
इसीलिए
सुलझाने लगा
उलझे हुए पतंग की डोर को
और शायद भूल गया
स्वयं ही स्वयं को
और खुद ही उलझ गया
खुद को सुलझाने में
मेरा मन
शायद नहीं देखा सकता है वे
प्रतिभाओं को
यूँ ही
कुण्ठित होते हुए
और चाहता है उनका
समुचित मूल्यांकन
मेरा मन
शायद वे जब देखता है
सत्य को न्यायालयों के चौकठ पर
सर झुकाकर न्याय की
गुहार लगाते हुए
और फिर
उसे झूठ से हारते हुए
तब सत्य का गवाह
बनना चाहता है
मेरा मन
शायद नहीं सहन होता है उसे
उन अजन्मी कन्याओं का
करुण क्रन्दन
चाहता है उन्हें माँ के
आँचल की छांव देना
और अपनी
विवशता पर अकेले
छटपटाता है
मेरा मन
शायद नहीं देख सकता
औरों के लिए महल बनाने वाले
मजदूरों को
जो स्वयं सड़कों पर
बेफिक्र सो रहे हैं
अपने पलकों में
अनगिनत स्वप्न बंद किए
तब न जाने क्यों
उनके सपनों को
साकार करना
चाहता है
मेरा मन
शायद नहीं देख सकता है वह
बालश्रमिकों को
सिर्फ
रोटी के लिए
घरों में, होटलों में
जूठन साफ करते हुए
और फिर
थके हुए हथेलियों से छूटकर
प्लेटों के टूट जाने पर
बेरहमी से पिटते हुए
मेरा मन
शायद नहीं देख सकता
भोले भाले लोगों को
ढोंगी बाबाओं के जाल में फंसकर
छटपटाते हुए
और चाहता है उन्हें
अंधविश्वास के
मकड़जाल से निकालना
मेरा मन
— किरण सिंह
मन की बात खूबसूरत ढंग से बिआं की.