मुक्तक/दोहा

कुछ मुक्तक

भटके हुओं को राह दिखाती हैं पुस्तकें books

अँधेरे मन में दीप जलाती हैं पुस्तकें

मन में अगर लगन हो तो कुछ भी कठिन नहीं

नव चेतना नव जागरण लाती हैं पुस्तकें

 

 

फूलों से लद गई है हर डालीगुलाब की

महका रही चमन को हर डाली गुलाब की

ऐ काश कोई देखता उसको भी प्यार सेgulab

जिन काँटों ने की रोज रखवाली गुलाब की

 

 

गलिन -गलिन मैं टेरत हारी दर्शन दे दो राम मुझे ,

विनती सुन लो हे पुरुषोत्तम मत तरसाओ राम मुझे,

राम राम की रट जो लागी अपनी सुध – बुध भूल गई

चरण चिन्ह चरणामृत दोनों मिले शुचित अभिराम मुझे ।

 

 

जल की हर एक बूँदमें ऊर्जा का भंडार   jal

बूँद बूँद जल की मिले तब बनती जल-धार

जल बिन जड़ सारा जगत ऊसर बंजर खेत

जल वृष्टि से जगत में हो अमृत संचार

 

 

मैं अकिंचन अनवरत सुन रही क्रन्दन अवयवों का

कुछ कहे कुछ अनकहे बेबाक शब्दों के शवों का shoony

कौन हो? पहचान क्या है? ये बताओ तो हमें

शून्य से शून्य तक का सफर अपने अनुभवों का

 

— लता यादव

लता यादव

अपने बारे में बताने लायक एसा कुछ भी नहीं । मध्यम वर्गीय परिवार में जनमी, बड़ी संतान, आकांक्षाओ का केंद्र बिन्दु । माता-पिता के दुर्घटना ग्रस्त होने के कारण उपचार, गृहकार्य एवं अपनी व दो भाइयों वएकबहन की पढ़ाई । बूढ़े दादाजी हम सबके रखवाले थे माता पिता दादाजी स्वयं काफी पढ़े लिखे थे, अतः घरमें पढ़़ाई का वातावरण था । मैंने विषम परिस्थितियों के बीच M.A.,B.Sc,L.T.किया लेखन का शौक पूरा न हो सका अब पति के देहावसान के बाद पुनः लिखना प्रारम्भ किया है । बस यही मेरी कहानी है

One thought on “कुछ मुक्तक

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छे मुक्तक !

Comments are closed.