आज मनुष्य की प्रकृति के आगे अंतिम हार हुई…!!
बारिश ने कल काल का अविचल रूप बनाया था,
कृषकों के कंदुक स्वप्नों को बीती रात बहाया था,
रीति गागर, रीते सपने लेकर बच्चे सोच रहे,
झोंपड़िया में रोते रोते माँ-बापू को नोच रहे..!
बाबा के नत-नीर बहे,
खाने के लाले पड़ते है,
एक-एक कौर की खातिर,
घर में भूखे बच्चे लड़ते है,
हाय! नियती से भारी ये बारिश की फुफकार हुई,
आज मनुष्य की प्रकृति के आगे अंतिम हार हुई…!!
बहुत ख़ूब !
आपका बहुत आभार बड़े भाई… जो आप मेरी कविताओं को प्रोत्साहन प्रदान कर रहे हो.