हर हुस्न का जो जश्न था
हर हुस्न का जो जश्न था, एक रोशनी में ढ़ल गया;
हर अहं का जो बहम था, परमात्म में मिल घुल गया ।
बिन बात के जीवन तरी, थी उछलती नदिया रही;
सब कुछ गँवा उसमें समा, वह समुन्दर समगे रही ।
हर अंग की जो थी उमंग, बस चन्द रातों की रही;
अनुराग की अन्तिम कड़ी, थी उसी में पाई रही ।।
मिलना बिछुड़ना ज़िन्दगी में, हर घड़ी चलता रहा;
पाना व खोना फिर कमाना, गति जग देता रहा ।
अनुभूति ही दौलत रही थी, आख़िरी फैलाव में;
सैलाव सुन्दर समुन्दर सा, फ़क़ीरी ‘मधु’ भर गया ।।
रचयिता : गोपाल बघेल ‘मधु’
वाह वाह !
Nice one