उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 60)
55. मंगल उत्सव
राजमहल की अट्टालिका पर साम्राज्ञी देवलदेवी खड़ी थी। सांझ ढल रही थी। स्वच्छ आकाश में तैरते हुए पक्षी अपने रैन बसेरे की ओर जा रहे थे। राजमहल के मंदिरों से शंख, घंटे और आरती की ध्वनियाँ आ रही थीं। साम्राज्ञी ने आरती की वाणी सुनकर आँखें बंद कर लीं और वह आरती के मधुरश्रवण में तल्लीन हो गईं।
सम्राट धर्मदेव भी अट्टालिका पर आए। देवलदेवी को तल्लीन देख बिना आहट के उनके पीछे जाकर खड़े हो गए। आरती के समाप्त होने पर देवलदेवी ने आँखें खोली, पीछे बिना मुडे़ बोली, ‘कब आए देव?’
”जब देवी ने मंगल उत्सव की आरती सुनना प्रारंभ किया था।“
देवलदेवी घूमकर सम्राट को देखकर बोली, ”इस मंगल उत्सव की बेला लाने के लिए हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे।“
सम्राट धर्मदेव देवलदेवी के मुखमंडल को देखते हुए बोले, ”और इस मंगल उत्सव के लिए भारतवर्ष की आने वाली संतानें आपकी ऋणी रहेंगी साम्राज्ञी देवलदेवी।“
और इस समय राजमहल के एक मंदिर से शंख ध्वनि गूँजी जिसकी ध्वनि में एक ही नाम तरंगित हो रहा था ‘देवलदेवी।’
(समाप्त)
बहुत अच्छा उपन्यास ! लेखक को हार्दिक साधुवाद !
upnyas prkasha hetu bahut dhanywad sir..
क्या हम इसको ई-बुक का रूप देकर वेबसाइट पर लगा सकते हैं?