कविता

कविता : काश !

काश !
मैं एक विशाल वृक्ष और
छोटे-छोटे पौधे ही होती ….
तो
 एक विशाल वृक्ष ही होती जो मैं ….
 मेरी शाखाओं-टहनियों पर
पक्षियों का बैठना – फुदकना
 मेरे पत्तों में छिपकर
 उनका आपस में चोंच लड़ाना ,
 उनकी चह-चहाहट – कलरव को सुनना ,
उनका ,शाखाओं-टहनियों पर ,पत्तों में घर बनाना ,
 गिलहरी का पूछ उठाकर दौड़ना-उछलना मटकना   ,
मेरी छाया में थके मनुष्यों का  ,
 बड़े जीव जंतुओं का आकर बैठना
उनको सुकून मिलना ,
सबको सुकून में और खुश देख कर
मेरी खुशी को भी पंख लग जाते ….
मेरे शरीर से निकली आक्सीजन की
स्वच्छ वायु जीवन को सुकून ही तो देते  ,
छोटे-छोटे पौधे ही होती जो मैं ….
मेरे फूलो से निकले खुशबु ,
वातावरण को सुगन्धमय बनाती ….
मेरे पत्तों-बीजों से
औषधि बनते। ….
 सबको नवजीवन  मिलते
 कितनी खुश होती मैं ………..
मुझे बयाँ करना मुश्किल लगता रहा है ……
लेकिन एक नारी , औरत ,स्त्री , महिला हूँ मैं
जुझारू और जीवट
 जोश और संकल्पों से लैस मैं
सामाजिक-राजनीतिक चादर की गठरी में कैद मैं
सामाजिक ढाँचे में छटपटातीं-कसमसातीं मैं
नए रिश्तों की जकड़न-उलझन में पड़ कर
पर पुराने रिश्तों को भी निभाकर
हरदम जीती-चलती-मरती हूँ मैं
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा ….
ऐसे ही रहती आई हूँ मैं
ऐसे ही रहना है मुझे ?
उलझी रहती हूँ अनसुलझे सवालों में मैं
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में मैं
जितने हो सकते हैं ,बदनामी का ठीकरा
हमेशा लगातार फोड़ा जाता है मुझ पर
उलझी रहती हूँ मैं
 लेकिन
हँसते-हँसते सब बुझते -सहते
हो जाती हूँ कुर्बान मैं
कब-कब , क्यूँ-क्यूँ , कहाँ-कहाँ , कैसे-कैसे
 छली , कुचली , मसली और तली गई हूँ मैं
मन की अथाह गहराइयों में
दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए मैं
शोषित, पीड़ित और व्यथित मैं
मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित मैं
मानसिक-भावनात्मक और
सामाजिक-असामाजिक
कुरीतियों-विकृतियों की शिकार मैं
लड़ती हूँ पुराने रीति-रिवाजों से मैं
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित मैं
अंधविश्वासों की आँधी से
खुद रहती हूँ हरदम अभावों में मैं
पर देती हूँ सबको अभयदान मैं
एक नारी , औरत ,स्त्री , महिला हूँ मैं।

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

5 thoughts on “कविता : काश !

  • बहुत गैहराइ कि बात आप ने इस कविता मे बिआन कर दि .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      आभारी हूँ भाई जी ….. बहुत बहुत धन्यवाद आपका ….

  • जवाहर लाल सिंह

    बात तो सही है पर क्या स्त्री आँचल की छांव नहीं देती अपने बच्चों को गोद में ले नहीं फुदकती है औषधि, प्राणवायु सब कुछ देती है एक स्त्री अगर हममे ग्रहण करने की क्षमता हो ..सादर आदरणीया विभा जी

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      सहमत हूँ आपकी बातों से ….. बहुत बहुत धन्यवाद आपका

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