किसानों की दुर्दशा एवं आत्महत्या की मजबूरी
[ कृषि-प्रधान देश में किसानों की दुर्दशा एवं आत्म हत्यायों की मजबूरी ने आखिरकार कलम उठाने को मजबूर कर ही दिया | राष्ट्रहित में चिन्तन और वर्तमान परिस्थितियों में इतिहासजन्य साक्ष्यों को प्रस्तुत करता यह आलेख कुछ विचारणीय तथ्यों के साथ प्रस्तुत है | ]
अगर कोई भी चालबाज चाहे तो आपको आपके पूरे होशो-हवाश में रहने के बाबजूद भी दिन के दुपहरी में बीच चौराहे पर खड़े-खड़े बेच दे | वैसे भी ये प्रथा नई नहीं है, बहुत पुरानी है | नई इबारत में बस गुलामी की निशानी है |
आज दुनियाँ की बात छोड़ भी दें, सिर्फ और सिर्फ अपने भारत देश की ही बात करें तो किसी भी प्रकार की नौकरी के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता मैट्रिक मानी गयी है | जिसके लिए न्यूनतम मैट्रिक पास का सरकारी मान्यता प्राप्त प्रमाण-पत्र अनिवार्य है | मैट्रिक का मतलब मैं “ट्रिक” यानी “चालबाजी” में पास होना जरूरी है |
क्षमा के साथ कहना चाहूँगा कि अगर अतिश्योक्ति न माने तो कहा जा सकता है – वर्तमान में पूरा देश ऐसे ही चालबाजों के चंगुल में फंसे घायल शेर कि नाईं पिंजरे में कैद होकर कराह रहा है |
आज तक देश के किसानों को प्राकृतिक आपदाओं और आत्महत्याओं तक के एवज में मिला ही क्या है ? सिवाय “ऊंट के मुंह में जीरे का फोरन” के अलावे ? बेशक सत्ता खुद की सत्ता बचाने को आश्वासन दे, मगर सच्चाई तो कुछ और है | सत्ता तो बंधुआ मजदूर की तरह आका के आदेश के तहत बंधा है और वह है विश्व व्यापार संगठन (गेट) के समझौते और उसके शर्तों में बंधे देश की व्यवस्था, जिसे १४ दिसम्बर’ १९९४ को देश की तत्कालीन सत्ता प्रधान ने हस्ताक्षरित किया |
ज्ञात हो विगत कई दशकों से राष्ट्रीय-कोष को लूट-लूटकर व्यैक्तिक कोष का स्वामित्व की सोच ने इतना कंगाल बना दिया कि देश की सत्ता चलाने के साथ अपने कर्मचारियों को वेतन तक के लिए भी ऋण की आवश्यकता महसूस हुई और विश्वबैंक से ऋण नहीं मिल पाने की स्थिति में सोना तक गिरवीं रखनी पड़ी |
फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक दबाब बनाने एवं गेट समझौते पर हस्ताक्षर करने-कराने का दौर ही चल पड़ा तब इसी लाचारी एवं व्यैक्तिक कोष में बढ़ोतरी के स्वार्थवश समझौते के अमानवीय शर्तों को भी स्वीकार किया गया, तभी विश्व बैंक से ऋण प्राप्त किया जा सका | जो एक देशी-विदेशी लूट के षड्यंत्र का अद्यतन आधार बना हुआ है |
टैक्स के नाम पर लूट का जो दरवाजा अंग्रेजों द्वारा खोला गया वह आज भी बरकरार है | अंग्रेजों ने तो मात्र सत्ताईस दरवाजे खोले थे पर, आजादी के बाद तो लूट की बाढ़ सी आ गयी | जिसके लिए लगभग सड़सठ दरवाजे खोले गये | ये भी जब कम पड़ने लगे तो विश्व बैंक से विकास के नाम पर हर साल, यहाँ तक कि साल में दो-दो बार ऋण लिए जाने लगे | अब तो स्थिति यहाँ तक आ पहुंची है कि राज्य तो राज्य पंचायत को भी विश्व बैक से ऋण प्राप्त करने की छूट दे दी गयी |
यूँ तो विश्व व्यापार के नाम की संस्था तो द्वितीय विश्व युद्ध के तत्काल बाद ही अस्तित्व में आ चुका था और भारत भी उसका सदस्य था | उस समय के नियमों एवं शर्तों को पुराना बताकर भारत जैसे विकासशील देश की खनीज सम्पदा एवं आर्थिक दोहन में देश के कानूनों के कारण होनेवाले परेशानियों को दूर करने का प्रयास सार्थक करने के उद्देश्य से नये षड्यंत्र का सूत्रपात हुआ |
गेट ( GATT= GENERAL AGREEMENT ON TRADE & TERRIF ) के शर्त्तों ने देश को इस कदर बांधा है कि एक तरफ कर्ज का बोझ तो दूसरी तरफ मनमानी और शैतानी भरे विदेशी सोच को क्रियान्वयन करनी की बाध्यता |
काल-कोठरियों का जिक्र तो सबने सुना होगा पर, ऐसे कालकोठरियों का नहीं, जिसमें यातनाओं के अलावा विषधर सर्प भी डंसने के लिए पाले गये हों | पर आज ये सब सम्भव हो रहा है |
विशेष चर्चा में जाने की जरूरत नहीं, कई समझौते के तहत एक समझौता “कृषि क्षेत्र का समझौता” ही वर्तमान में समयोचित और समीचीन होगा | इस समझौते के अंतर्गत अन्य कई समझौतों के शर्तों के मुताबिक़ हमारे देश की सरकार द्वारा किसानों को किसी भी तरह की सहायता देने के अधिकार से बंचित करती है जो ७% प्रति साल के दर से कटौती अनिवार्यत: निर्धारित है | साथ ही देश की सरकार किसी भी प्राकृतिक आपदाओं में भी अगर सहायता करना चाहे तो उसके लिए भी विश्व व्यापार संगठन से मंजूरी लेनी होगी और संगठन (W.T.O.) द्वारा भेजे गये जाँच दल के अनुसंशा के आधार पर | यानी कि सहायता राशि देने के लिए भी इस संगठन की मनमर्जी पर टकटकी लगाये रहना होगा | जो सबसे बड़ी शर्म और पराधीनता स्वीकारने जैसी स्थिति है और यह भी एक बहुत बड़ा कारण पिछले दस वर्षों से रहा कि किसानों को १०-२० रूपये तक के चेक मिलते रहे |
ऐसे में, वर्तमान परिस्थितियों में प्राकृतिक आपदाओं से ग्रस्त किसानों के हमदर्द बनकर घडियाली आंसू बहानेवाली सरकार तथा राजनैतिक पार्टियां और उसके नुमाईंदे आखिर करे तो क्या करे ?
जिसने देश को गिरवीं रखा और दूसरे वे लोग जिन्होंने गिरवीं रखने कि प्रक्रिया को मौन हो इसलिए भी देखने के दोषी रहे कि आज नहीं तो कल हम भी सत्ताशीन होंगे, जो आज हमदर्द बनकर सडक पर उतरते दीख रहे हैं |
निजी स्वार्थ के लिए देश की सौदेबाजी करनेवालों को यह पता है कि हमने जिन शर्त्तों के आधार पर देश को गिरवीं रखा है उसके अनुसार तो वर्तमान सरकार क्या कोई भी सरकार कुछ नहीं कर पायेगी और किसी भी गैर कांग्रेसी सरकार को को जनता के नजरों में गिराकर फिर से सत्ता हासिल कर लेंगे | ऐसे मनसा से ग्रस्त राजनितिक दल सडकों और सत्ता के गलियारे में झूठे प्रदर्शन में सलग्न दीखते हैं |
अंग्रेजों ने जितनी लूट की खिड़कियाँ खोल रखी थी उससे कहीं ज्यादे अब खुली हैं | विदेशी निवेश और विकास के नाम पर ही सही विदेशों में पड़े काला धन देश में आ जाय | निवेश और विकास के नाम पर निवेशकों से कोई पूछ-ताछ तक नहीं होगी और सारा कालाधन भी सफेद हो जायगा साथ में विकास के नाम पर विदेशी विद्यालय से लेकर भोजन तक परोसने कि व्यवस्था की जा रही है | आखिर विदेशों में पड़ा कालाधन जब सरजमीं पर उतरेगा तभी तो फलेगा-फूलेगा अन्यथा तो रख-रखाव और गुप्त रखने का खर्च तो लाजमी है | और यही कालाधन सत्ता में बने रहने के काम तो आता है जो फिर से देश को नोचने-खसोटने का मौक़ा उपलब्ध कराकर व्यैक्तिक धन बढाने का अवसर दिलाता है |
वर्तमान में गेट समझौते के शर्त्तों की मजबूरी में भूमि अधिग्रहण की योजना प्रतीति होती है | जिसमें विकास के नाम पर उद्योगों के साथ-साथ स्कूल, कालेज, अस्पताल, रेल, सडक आदि के नाम पर आमलोगों को और अच्छी तरह निचोड़ा जा सके | मिहनत श्रम तो करें देशवासी और आर्थिक लाभ लें कुछ नेता और धन्नासेठ जिन्हें स्पष्ट ईशारा है कि “बिना किसी रोक-टोक के खुल्ले आओ और खुल्ले खाओ” |
इसी क्रम में भूमि का मालिकाना हक तो किसानों के पास ही है | अत: भूमि के बलात अधिग्रहण को कानूनी जामा पहनाकर विकास का नाम दिया जा सके | ऐसा ही कुछ तो अंगरेजी शासकों द्वारा किया जाता रहा था और आजादी के बाद आजाद भारत के शासकों द्वारा किया जा रहा है |
जब आम जनता जागने लगे तो भाषा, जाति, सम्प्रदाय के नाम पर विध्वंसक शिगूफे छोडकर लोगों को उलझाये रखा जा सके| आमलोगों को इस ज्वलंत समस्या से भटकाया जा सके | हलांकि यह काम टी० वी० के माध्यम से बखूबी किया जा रहा है |
ऐसा प्रतीति होता है कि इसी परिकल्पना के आधार पर “कालाधन लाओ तथा निवेश और विकास के नाम पर स्मार्ट सिटी बनाओ” की योजना कार्यरत है | ऐसे विदेशी षड्यंत्र से त्रस्त भारत के खासकर युवाओं को चेतने की जरूरत है न कि उलझने की |
— श्याम “स्नेही”
देश का अन्दाता शुरू से भूखा मरता आया है किओंकि उस की किस्मत की डोर मौसम से बंधी हुई है . मैंने खेती कर के देखि है . जब फसल तैयार होने को होती थी तो अचानक तेज़ बारिश या गड़े खड़ी फसल को बर्बाद कर देते थे . उस समय में और आज के समय में जिमी आसमान का अंतर है . छोटा करके लिखूं , उस समय ना तो कोई खाद होती थी , ना कोई पैस्तेसाइड किओंकि इस की जरुरत पड़ती ही नहीं थी , ना कोई बिजली का बिल ना डीज़ल का खर्चा . बस घर के बलद होते थे , अपनी गाए भैंसें ही आगे के लिए बलद तैयार कर देती थीं . बड़ी बड़ी चरागाह होती थी जिस पर पशु सारा दिन घास चरते रहते थे . अब हर काम मशीनरी से होता है जिस में रीपेअर का खर्चा और बाकी खर्चे मिला कर किसान को पहले ही करजई कर देते हैं और जब बारिश होती है तो उस के पास खुदकशी के सिवा कोई चारा नहीं होता .
किसानों की दुर्दशा पर आपके विचार सही हैं, लेकिन इसका दोषी gatt या भूमि अधिग्रहण कानून को ठहराना सही नहीं है. वर्तमान में ओले और बारिश के कारण फसल ख़राब होने पर किसान आत्महत्या कर रहे हैं. भूमि अधिग्रहण कानून के अंतर्गत जो जमीन ली जाएगी, उस पर होने वाले विकास कार्यों का लाभ अंततः सभी को मिलेगा जिनमें किसान भी शामिल हैं.