मुसलमानों के मताधिकार का प्रश्न
कुछ दिन पहले शिव सेना के एक सांसद ने एक लेख में यह मत व्यक्त किया था कि देश की राजनीति को स्वच्छ करने के लिए मुसलमानों से मताधिकार वापस ले लिया जाना चाहिए, क्योंकि इनके कारण वोट बैंक की राजनीति होती है. यह लेख आते ही सेकुलर संप्रदाय के सभी लोग हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गए और अंततः उनको अपना मत बदलना पड़ा.
भले ही, उन सांसद महोदय ने अपना लेख वापिस ले लिया हो, लेकिन जो प्रश्न उन्होंने उठाया है वह इतनी सरलता से हवा में नहीं उड़ाया जा सकता. उनकी बात भले ही आज स्वीकार्य न हो, लेकिन विचारणीय अवश्य है.
पहली बात तो यह है कि जब देश के टुकड़े करके “केवल मुसलमानों” के लिए एक अलग देश पाकिस्तान बना दिया गया था, तो फिर नैतिकता का तकाजा था कि भारत के सभी मुसलमान अपने सपनों के देश में चले जाते और वहां से हिन्दू तथा अन्य समुदाय के लोग भारत आ जाते. आबादी की यह अदला-बदली शांतिपूर्वक होनी चाहिए थी और तत्कालीन सरकार को विभाजन से पहले यह कार्य समाप्त कर लेना चाहिए था.
परन्तु देश के दुर्भाग्य से उस समय गाँधी-नेहरु के नेतृत्व में कांग्रेस हिन्दुओं और पूरे देश की भाग्यविधाता बनी हुई थी. उन्होंने अपनी मूर्खता से (या धूर्तता से?) आबादी की अदला-बदली का विचार तत्काल रद्द कर दिया. इसमें नेहरु की चाल ज्यादा थी. वे जानते थे कि देश विभाजन के कारण आम हिन्दू उनसे घृणा करता है. अतः यदि उनको मुसलमानों के वोट बैंक का सहारा नहीं होगा, तो कांग्रेस बहुत जल्दी हाशिये पर चली जाएगी. इसलिए उन्होंने मुसलमानों के एक बड़े भाग को देश में ही रहने दिया ताकि वे उनका वोट बैंक बन जाएँ.
दूसरी गलती यह हुई कि नाथूराम जी गोडसे ने देश विभाजन के लिए जिम्मेदार मानकर गाँधी को गोली मार दी. नाथूराम जी अपनी जगह सही थे, लेकिन उन्होंने बाद की संभावनाओं पर विचार नहीं किया था. अगर वे गाँधी को न मारते, तो कुछ समय बाद गाँधी स्वयं ही घुट-घुटकर मर जाते. लेकिन उनकी हत्या हो जाने से कांग्रेस ने उनको शहीद बना दिया और हिन्दू राष्ट्रवादियों को जी भरकर कोसा. इसके परिणामस्वरुप देश का आम हिन्दू फिर कांग्रेस के जाल में फंस गया और अनेक वर्षों के लिए कांग्रेस और नेहरु की गद्दी सुरक्षित हो गयी.
जहाँ तक मुसलमानों की बात है, उनको भारत में एक नागरिक के रूप में रहने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, क्योंकि ९५% मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के पक्ष में मतदान किया था. अगर वे इस देश में रहना चाहते हैं, तो उनको शरणार्थियों के रूप में ही रहने की अनुमति होनी चाहिए. ऐसे लोगों को मताधिकार नहीं होता, हालांकि वे अपने प्रतिनिधि का चुनाव करके सरकार तक अपनी बात पहुंचा सकते हैं.
अगर हमें देश में साम्प्रदायिकता की समस्या का स्थायी समाधान करना है तो इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए. यह मेरा व्यक्तिगत मत है.
लेख से आपकी सूझ बूझ, निर्भीकता और साहस का परिचय मिलता है। आप नेता न होकर भी प्राचीन भारतीय हिन्दुओं के नेता हैं। धन्यवाद।
विजय भाई , आप के विचार सही हैं , आज वोट बैंक की राजनीति ही हो रही है , देश जाए भाड़ में . कुछ नेता तो ऐसे हैं , जो पलड़ा भारी दीखता है उस तरफ चले जाते हैं . जो हिन्दू पाकिस्तान में रह गए थे , आजादी के वक्त १४ % थे , आज मुश्किल से २% रह गए होंगे , वोह भी बहुत दुखी हैं और एक दिन मुसलमान बन जायेंगे लेकिन दुःख के साथ कहता हूँ बचपन से आज तक किसी भारती नेता ने उन के लिए गुहार नहीं लगाईं बल्कि पकिस्तान भारत में रह रहे आज़ाद मुसलमानों को भी दुखी दिखा रहे हैं . हर वक्त यही बोलते हैं कि भारत के मुसलमान हिन्दुओं के हाथों दुखी हैं बल्कि सच कुछ और है . बचपन से आज तक पाकिस्तान को कश्मीर का राग अलापते हुए सुन रहा हूँ लेकिन कभी बलोचिस्तान के बारे में किसी भी भारती का बिआं नहीं सुना . बलोचिस्तान भी पाकिस्तान ने जबरदस्ती कब्ज़े में रखा हुआ है और बलोची लड़ और मर रहे हैं . भारत कुछ कर भी नहीं रहा , फिर वोह यही कह रहे हैं कि भारत ब्लोचितान में उन लोगों की मदद कर रहा है . कैसी राजनीति है यह , मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा .
सही लिखा है, भाई साहब आपने. प्रारंभ से ही भारत सरकार की नीति मुस्लिम तुष्टिकरण और हिन्दुओं की उपेक्षा करने की रही है. अब मोदी जी के आने से वातावरण थोडा थोडा बदल रहा है, लेकिन पूरी तरह बदलने में समय लगेगा.