स्मृति के पंख – 1
माँ सरस्वती देवी को बारम्बार प्रणाम करता हूँ। माँ ! मुझे बुद्धि और शक्ति दे ताकि मैं अपनी जीवन गाथा लिख पाऊँ। मेरी मन की ऐसी कल्पना है पर अपने आप को असमर्थ पा रहा हूँ। आपकी कृपा हो तो यह कार्य पूर्ण कर पाऊँगा। मेरी शिक्षा बहुत कम है, बस प्राइमरी तक। इतना कम पढ़ा लिखा इंसान तो लिखने की सोच भी नहीं सकता।
उन दिनों मैं लुधियाने में आढ़त का कारोबार करता था और किसी पार्टी को प्रेरणा देने के लिए कि हमारे साथ कारोबार करें मुझे खत लिखने में दस से पन्द्रह मिनट लगाने पड़ते थे, जिससे कि उस पार्टी पर मेरा प्रभाव पड़ सके। तभी एक पार्टी ने मुझे एक बार लिखा, “भई तुम सब्जी वगैरह के धंधे में कैसे फँस गये। तुम्हें तो लेखक होना चाहिए था।” उस खत ने मेरे अन्दर की चेतना को जगा दिया, लेकिन शिक्षा कम होने कारण ऐसा सोचना भी मुमकिन न था। फिर भी सोचा कि अपनी जिंदगी के बारे में ही थोड़ा बहुत लिखा जाये, जो मेरी आने वाली पीढ़ियों के लिए मेरी एक लम्बी जद्दोजहद की कहानी होगी। जिस समय मुझे लिखने का समय मिला, तो देखा कि सब लड़के जीवन की भागदौड़ में इतने मशरूफ हैं कि उर्दू में लिखी मेरी जीवनी को हिन्दी में अनुवाद करने का समय नहीं निकाल पायेंगे। अतः मैंने लिखने का इरादा छोड़ दिया। सितम्बर 1987 में मैं बीमार हो गया और लिखना छोड़ दिया। कुछ समय आराम और इलाज करने के बाद, कुछ सेहत ठीक हो गई। देहरादून में रमेश बेटे ने गृहप्रवेश के बारे में लिखा, शुभ मुहूर्त का दिन 27/06/1988 था और हम दोनों (मैं और रमेश की माताजी) रमेश के साथ देहरादून आ गए। कुछ दिन बाद रमेश ने कहा, “पिताजी! आप अपनी जिन्दगी के बारे में लिखने को कहा करते थे, अब आप जरूर लिखें”। और फिर मैंने माँ तुझे सिर झुका कर लिखना शुरू कर दिया।
मेरा जन्म सन् 1912 में हुआ था। आज 1988 है। 76 साल की उम्र से गुजर रहा हूँं। आज 9/08/1988 बमुताबिक मंगलवार 26 सावन संवत् 2045 को देहरादून में लिखना शुरू किया।
दो-अढ़ाई सौ साल पहले का जिक्र है। हमारे बुजुर्ग भेरा खुशाब से, जो अब मगरिबी पंजाब (पूर्वी पंजाब) में है, फ्रंटियर (सीमा प्रान्त) की तरफ, कारोबार ना होने की वजह से चले गए। एक भाई तो जेहलम (पंजाब) में ही ठहर गया। बाकी दो भाई फ्रंटियर चले गये। मर्दान के करीब तोरू नाम का कस्बा था, वहाँ आबाद हुए। बाद में एक भाई तोरू के नजदीक छोटा सा गाँव था गलाढेर, वहाँ चला गया। वहीं से हमारे खानदान की परम्परा चली।
पिताजी की जुबानी मालूम हुआ कि दादाजी छोटी उम्र में ही पिताजी को छोड़कर स्वर्गवासी हो गये थे। पिताजी की परवरिश उनके चाचाजी ने की थी। उस वक्त उनके चाचाजी नवाब तोरू के कारिंदे थे। थोड़ी जमीन भी थी। पिताजी के होश संभालते-संभालते उनके चाचाजी का स्वर्गवास हो गया। इसके साथ ही जो जमीन थी, जिसे संभालना पिताजी के लिए मुश्किल था, वैसे ही छोड़ दी। उसे नवाब ने अपने कब्जे में ले लिया। पिताजी ने घर में एक दुकान खोल ली। शुरू-शुरू में काम बरायनाम (नाममात्र) था, पर पिताजी के मीठे सलूक से काम जल्द ही जम गया। गलाढेर का पश्तो में मतलब है जहाँ काफी मिकदार में गल्ला पैदा होता हो (यानी गल्ला+ढेर)। ऐसा था हमारा छोटा सा गाँव, जिसकी कुल आबादी तकरीबन 1000 घरों की थी। उनमें हिन्दुओं के सिर्फ 11 घर थे।
मेरा जन्म सन् 1912 की जौलाई में हुआ था। तारीख का पुख्ता पता नहीं। उस समय बड़े भाई साहब की उम्र 10 साल की थी। इस बीच बाकी बहनें थी। बड़ी बहन सीता देवी और छोटी बहन गोरज देवी, जो मुझसे दो साल बड़ी है। मेरा जन्म काफी अर्सा बाद यानि 10 साल बाद लड़के का जन्म हुआ था, इसीलिए काफी खुशी थी और गाँव वालों ने भी अच्छा जश्न मनाया था। लोगों के दिये हुए काफी तोहफे जो लकड़ी के बने थे, हमारे घर में मौजूद थे। इस हंसते खेलते परिवार को थोड़ा ही समय गुजरा था, जब मेरी उम्र 5 वर्ष की ही थी, तो माताजी का देहान्त हो गया। मुझे याद है, मृतक शरीर के पास मुझे बैठाया गया, ताकि मुझे एहसास हो जाये कि मेरी मां मर चुकी है। बिना मां के बच्चे के जो हालत होती है, वैसे ही मुझसे चंचलता छिन गयी और हंसना भूल गया। बहन सीता देवी मुझे बहुत प्यार और दुलार देती थी। मां की याद को कम करने में बहन सीता देवी का बहुत बड़ा हाथ था। फिर भी कमी तो थी ही, मां के प्यार की, जो शायद दुनिया में कोई नहीं दे पाता।
दुनिया की रीति है। बड़ी बहनजी ने जैसे मां का रूप ही धार लिया हो, वह मेरा खाने का, नहाने, पहनने का पूरा ध्यान रखतीं और फिर तख्ती और बस्ता देकर मदरसा जाने के लिए रवाना करतीं। छोटा गाँव था, एक बड़े से मकान में स्कूल था। एक ही मास्टर सब बच्चों को पढ़ाता था। स्कूल चौथी जमाअत तक ही था। वहाँ लड़कों के साथ खेलना-कूदना और छुट्टी के बाद काफी घूमना। मुझे अब मां की याद कम आती थी। खेलकूद में मजा भी आता। बड़े भइया काशीरामजी मेरा बहुत ध्यान रखते थे। उनकी इच्छा थी कि मैं अच्छी शिक्षा हासिल कर सकूँ। वह स्वयं ही चौथी तक ही पढ़े थे, इसीलिए छोटे भाई के लिए उनके मन में ऐसी भावना थी। माताजी के स्वर्गवास के बाद मुझे पढ़ने बैठाया गया। मुझे इतना याद है कि मैं तख्ती पर लिखा करता था- ‘राधाकिशन बकलम खुद मदरसा गलाढेर जमायत दोयम सन् 1919’। तकरीबन डेढ़ साल बाद पिताजी ने दूसरी शादी कर ली। एक दिन बड़ी बहनजी मुझे दरिया के किनारे फिरा रही थीं। मैंने कहा, अब घर चलते हैं। बहनजी ने कहा कि थोड़ी देर बाद जायेंगे। वास्तव में मुझे शादी से दूर रखने के लिए कि मैं पिताजी की शादी पर जाने के लिए जिद्द करूँगा, वह मुझे बाहर ले आईं।
दूसरे दिन हमारी नयी माताजी आ गयीं। हम सब तो खुश थे, लेकिन भ्राताजी इस शादी से बहुत नाराज थे। कहते थे हम चार भाई बहन हैं, फिर पिताजी ने दूसरी शादी क्यों की। हमारी नयी माताजी बहुत अच्छी हैं, हमें बहुत प्यार करती हैं, बहनों को भी। परन्तु बड़े भइया उनसे नाराज थे। एक-आध बार भ्राताजी ने माताजी को मारा भी। पिताजी ने बड़े भइया को कहा ‘‘तुम्हारे हाथ में कीड़े पड़ें। माताजी को क्यों मारा?” आखिरी उम्र में भ्राताजी के हाथों में चम्बल हो गया, बहुत दुःखी रहते। वो कहते थे- ‘पिताजी का शाप है’ और माताजी से क्षमा मांगते। रफता-रफता उनके हाथ फिर ठीक हो गये। भ्राताजी के दुकान पर काम करने से पहले पिताजी ने एक आदमी भैया दास नामी अपने साथ रखा था, जो दुकान से चोरी करता था। जब भइयाजी दुकान पर काम करने लगे, तो उन्हें पता चल गया कि भैया दास चोरी करता है। उन्होंने पिताजी से कहा कि, “मैं आपके साथ दुकान पर पूरा काम करूँगा। आप भैयादास को निकाल दो। यह आदमी ठीक नहीं है।” पिताजी ने उसे अलग कर दिया। चोरी का रुपया तो उनके पास था ही। हमारे बराबर की दुकान उसने बना ली। थोड़े ही अर्सा बाद उसके मकान पर डाका पड़ा। भैयादास मारा गया और सब माल डाकू लूट ले गये। गाँव में यह चर्चा थी कि भैयादास ने सेवाराम से धोखा किया, इसलिए इसका अंजाम यह हुआ। मेरे पिताजी का नाम सेवाराम था।
(जारी…)
आतम कथा पड़ कर मैं उस समय में चला गिया जब देश एक था , बकलमखुद लफ्ज़ से मुझे बचपन के कुछ बजुर्ग याद आ गए जो उर्दू में लिखते थे जिन को शाएद अर्जीनवीस कहते थे . और दोएम को दुसरी जमात ही कहते होंगे . बहुत दिलचस्प जीवन कहानी है किओंकि उन कि विदिया ज़िआदा भी नहीं थी लेकिन इस लेखनी से एक अछे साहित्कार की खुशबू आती है . विजय भाई आप ने बहुत अच्छा किया .
प्रणाम भाई साहब. इस आत्मकथा को पढ़कर मैं स्वयं चमत्कृत रह गया था. इसलिए इसे आपके सामने लाने का साहस किया है.
आत्म कथा की पहली किश्त पढ़कर मनुष्य जीवन की सच्चाईयां जानकार पढ़ने में उत्सुकता व रोचकता लगी। मन में अनेक प्रश्न उठ रहें है जिनका उत्तर आगे कि किस्तों में मिलेगा। अब श्री राधा कृष्ण कपूर जी का स्वास्थ्य कैसा है व कहाँ रहते हैं, यह जानने की इच्छा है । धन्यवाद।
मान्यवर, इस आत्मकथा के लेखक अब इस संसार में नहीं हैं. उनके देहांत के बाद ही उनके पुत्र जो मेरे घनिष्ठ मित्र भी हैं, ने यह आत्मकथा पुस्तकाकार रूप में निकलवाई थी. मूल रूप में यह अरबी लिपि में उर्दू में लिखी गयी थी, जिसको लेखक ने स्वयं पढ़ते हुए बोलकर अपने पुत्रों और बहुओं से रोमन लिपि में लिखवाया था. फिर मैंने इसको टाइप किया और करवाया. कई कठिन उर्दू शब्दों को हिंदी में बदला. तब यह आप जैसे पाठकों के सामने आने के लिए तैयार हुई है. इसे पढ़कर आप चमत्कृत हो जायेंगे.
हार्दिक धन्यवाद। यदि आत्म कथाकार की मृत्यु का वर्ष पता हो तो कृपया सूचित करें। इससे मन में उनके बारे में यह भावना बनेगी कि इतने समय पहले वह संसार से जा चुके है। यस्य कीर्ति सः जीवति। इंसान अपने अच्छे कार्यों से मर कर भी जीवित रहता है।
उनकी मृत्यु का सही वर्ष मुझे ज्ञात नहीं है. अपने मित्र से पूछकर बताऊंगा. यह 1995 के आस-पास होना चाहिए.
धन्यवाद जी।
पूज्यवर, उनके देहांत की तिथि मेरे मित्र श्री गुलशन कपूर ने 14 जून 1990 बताई है. इसका मतलब है कि यह आत्मकथा लिखने के दौरान या उसके शीघ्र बाद ही उनका देहावसान हो गया था. इसीलिए अंत में यह कुछ अधूरी सी लगती है.
धन्यवाद श्री विजय जी। किसी लेखक का अपनी किसी कृति के पूर्ण होने वा उसके प्रकाशन से पूर्व संसार से चला जाना उसके लिए दुखद होता होगा इसलिए की वह उसे प्रकाशित रूप में नहीं देख सका. ऐसा मैं अनुभव करता हूँ। इससे पाठकों को भी कृति के अधूरी रह जाने का कुछ कुछ दुःख होता है क्योंकि उनकी इच्छा भी अंत तक पढ़ने की रहती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अपने आत्म कथा का एक भाग ही लिख पाये। उसे पढ़कर यह अखरता है कि काश यह पूरी होती। देहरादून में वेदों के भाष्यकार पंडित विश्वनाथ विद्यालंकार जी रहते थे। उन्होंने ८५ वर्ष की आयु में अथर्ववेद भाष्य का कार्य आरम्भ किया था। उन्हें स्वयं भी इसके पूर्ण होने की शंका शायद रही होगी। यह अथर्ववेद, सामवेद व यजुर्वेद से आकार में लगभग तीन गुना है। बहुत से लेखक कार्य आरम्भ करते हैं, वह यदा कदा मध्य में या समापन से पहले मृत्यु के कारण अधूरा रह जाता है। इसे ध्यान में रखकर उन्होंने इसे उलटे क्रम से आरम्भ किया था। बीस कांडो वाले अथर्ववेद का भाष्य का आरम्भ उन्होंने बीसवें काण्ड का पहले भाष्य कर किया। उसके बाद उन्नीस, अठारह, सत्रह आदि इस क्रम से। अंत में पहले काण्ड का भाष्य किया। यह भाष्य एक एक पुस्तक के रूप में छपते भी रहे। अंत में जब पहला कांड किया तो उनकी आयु १०३ वर्ष की थी। काण्ड ६ से २० तक के भाष्य प्रकाशित हो चुके थे तथा पंडित ही उन्हें देख चुके थे। काण्ड ४ व ५ प्रेस में था। दूसरे व तीसरे काण्ड की पाण्डुलिपि तैयार थी। पहला काण्ड भी कर चुके थे परन्तु उन्होंने मुझे बताने में निश्चय पूर्वक नहीं कह पाये थे। उनकी वाणी भी लडखडाती थी। मैं भी समझ नहीं पाया था। अचानक उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से एक दो दिन पहले उन्होंने मुझसे इसकी चर्चा की थी। बाद में यह पहला काण्ड गुम हो गया था। बहुत मुश्किल से मिला। अब यह सभी काण्ड प्रकाशित हो चुके है। कुछ समय पूर्व ही इसे गुरुकुल कांगड़ी एवं परोपकारिणी सभा, अजमेर ने भी प्रकाशित किया है। मेरा यह उदेश्य है कि वृद्धावस्था में ऐसे कामोँ में पहले अंतिम चैप्टर लिख लिया जाए तो अच्छा रहता है। यह अनायास ही मन में आया और मैंने लिख दिया। सादर।
आपकी सलाह उपयोगी है, मान्यवर ! लेकिन आत्मकथा का कोई अंतिम अध्याय ज्ञात नहीं होता. इसलिए लेखक जितना अधिक संभव होता है लिख जाता है.
जी हां, धन्यवाद।
रोचक कहानी की बेहतर शुरुआत !