बिंदिया
मैने नही
कहा
फ़ीर भी वह
वही रंग की साड़ी पहन लेती है
जिसे मै पसंद करता हूँ
और छम से आ धमकती है
कभी मेरे समक्ष
मैं तब
किताब के शब्दों मे –
एक पन्ने सा रहता हूँ अटका हुआ
वो छीन लेती है मुझसे किताब
और अपनी आँखों को और बडी कर कहती है
अब पढो न -साबूत ताजी कविता
मै उसके रूप की गरमी से हुआ पसीना -पसीना
सोचता हूँ कितना मुश्किल है
इसके बिना मेरा जीना
अब वक्त मुझे धकेल कर उसके अंक में
आगे बढ़ जाएगा
वह कुँए से पानी ऐसे निकालती है
जैसे बाल्टी मे मै पानी की जगह भरा हुआ होऊं
एक बूंद भी प्यार
छलक न पाए
मुझे देखते ही उसकी सुस्त चाल तेज हो जाती है
आप से आप गिरे आँचल को वह -सभालने लगती है
नारी माँ है
बहन भी है
लेकीन प्रकृति का -एक ऐसा रंग भी है
जिसके बिना प्रकृति का
यह व्यापक सौन्दर्य कितना अधूरा है
मानो—-
सौन्दर्य एक चेहरा हो
और नारी …उसके मस्तक पर लगी
एक शोभायमान ….बिंदियाँ हो
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब !