कहानी

रज़ाई की आँच

MAAN BETI

सुलेखा बहुत परेशान सी खिड़की से निहार रही है। एक चिड़िया का घोंसला पास ही पेड़ पर है। चिड़िया बार-बार, एक-एक तिनका उठा कर ले जा रही है,लेकिन तिनका घोसले तक पहुँचने से पहले ही चोंच से छूट कर गिर जाता है ।

चिड़िया फिर तिनका उठाती है और अनवरत ये क्रिया चलती रहती है, कि तब तक दरवाजे पर घंटी बजती है। घण्टी की आवाज सुनकर सुलेखा का ध्यान टूटता है, जाकर दरवाजा खोलती है तो सामने माँ को खड़ा पाती है ।

सुलेखा को लगता है, जैसे उसका मन मयूर नाच उठा है आँखों से ख़ुशी के मारे आँसू गिरने लगते हैं। टप! टप! टप!

झट से रसोई में जाकर माँ के लिए पानी लेकर आती है, कुछ मीठा भी आखिर माँ का स्वागत भी तो करना है …… देखें तो जीवन में बहुत सी चीज़ें हम अनुपयोगी समझ कर बिसारते जाते हैं, जैसे की समय समय पर माँ बाप का स्वागत करना। हम इसे जरूरी नहीं समझते और सोचते हैं, अरे छोड़ो बूढ़े हैं क्या समझेंगे? रहने दो! लेकिन मन, मन कभी बूढ़ा नहीं होता , ख़ुशी का जायका हर उम्र में एकसा ही होता है फिर वो ख़ुशी बड़ी हो, छोटी हो, जवान हो या बूढ़ी हो ।

माँ की भी आँखें भर आती हैं दोनों एक दूसरे का हाल चाल जान लेने के लिए आतुर हैं। सुलेखा माँ को बताने लगती है कि घर की जिम्मेदारियों में वो कहीं खो सी गयी है। सभी की सहूलियतों का ध्यान रखते रखते वो ये भूल ही गयी कि उसकी अपनी ख्वाहिशें भी कुछ हैं ।
सुलेखा की सास का दो महीने पूर्व निधन हो गया था। जब तक वो घर में थी, तब तक उसका ध्यान पति, सास, बच्चों, परिवार में हीं लगा रहा। परिवार से ऊपर उसे कुछ महसूस ही नहीं हुआ। उसका अपना नाम भी अब कहाँ लोग लेते हैं ,या तो लोग उसे कनक की माँ कहते हैं, या शर्मा जी की बहू या फिर श्रीमती शर्मा…. वो है ही कहाँ ? कहीं भी तो नहीं है।

तब तक चाय तैयार हो गयी थी। बातों बातों में हीं उसने चाय भी चढ़ा दी थी, दोनों घूँट घूँट गर्म चाय पीने लगती हैँ जैसे दोनों हीं घूँट घूँट ज़िन्दगी पी रही हों, एक ख़ाली पन में एक कुनकुनी धूप जैसा अहसास जो पूरे बदन को राहत दे जाता है। अब तक माँ समझ चुकी थी कि सुलेखा को कहीं न कहीं अकेलापन खल रहा है । बच्चे भी बड़े हो गए हैं, पति भी अब उतना समय नहीं दे पाते। इस सूनेपन में एक बार फिर सुप्त सुलेखा नींद से जग गयी है ।

माँ सुलेखा को समझाने लगती है- “जीवन का कोई भी चरण छोटा या बड़ा नहीं होता, सब समान ही होते हैँ। सभी चरण चुनौतियोंपूर्ण, संघर्ष मय एवं आनंद दायक होते हैं । अगर कोई समझ पाये तो । अगर उसे आज ऐसा लग रहा है तो सिर्फ इसलिए कि वो नकारात्मक सोच रही है और जीवन में कभी भी नकारात्मक नहीं होना चाहिए। उस समय भी नहीं जब कठिन से कठिन समय भी आपके सामने खड़ा हो ।
जीवन की हर घटना महत्वपूर्ण होती है, और कुछ न कुछ सिखाती है। आज अगर उसके पास अधिक समय है, तो वो वह सब काम करे जो उसे सर्वाधिक पसंद हैं। ये न सोचे कि अब कैसे होगा, क्या होगा, कर भी लेगी तो क्या हासिल होगा? अगर वो बिना ये सब सोचे फिर से अपने लिए कुछ करेगी, तो पुनः जीवन में आनंद और ऊर्जा महसूस करेगी”।

सुलेखा को अपनी माँ की बात समझ में आ गयी थी और वह अपने को बहुत हल्का, तरोताज़ा महसूस कर रही थी। ख़ुशी के मारे माँ के गले लग गयी,और कहने लगी तुमने मेरी धुंधली नज़र को साफ कर दिया माँ, अब मुझे सब कुछ साफ साफ दिखाई दे रहा है। शायद निराशा मन में घर करती जा रही थी । शायद ज्यादा नकारात्मक हो गयी थी । अब वो माँ को जल्दी नहीं जाने देगी। लेकिन माँ समझ चुकी थी कि वह जिस काम के लिए आई थी वो काम पूरा हुआ। बेटी से दो दिन रहकर जाने के लिए कहने लगती है तो सुलेखा नाराज़ हो उठती है- अभी अभी तो आई हो, इतने दिनों बाद और अभी से ही जाने की बात शुरू कर दी।

माँ कहने लगती है –बेटा सुलेखा रिश्तों में गर्माहट बनी रहे, वो जरूरी होता है। दूरी या पास होने से कुछ नहीं होता। ये गर्माहट बिल्कुल सर्दी में रजाई की गर्मी जैसी होती है। मौसम बदलने पर रजाई को सुखाकर करीने से तय कर के रख दिया जाता है ताकि जब फिर बदन ठंड से कंपकपाये तो उसे रजाई की गर्मी मिल सके। ये रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं, अगर रिश्तों पर बर्फ गिरने लगे तो ठंड लगने से पहले रजाई निकाल लेनी चाहिए, और दोनों खिलखिलाकर हंसने लगती हैं ।

इधर चिड़िया भी अपनी घोंसले की कारीगरी पूरी कर चुकी है और घोंसले से चीं ! चीं ! चीं ! की खुशनुमा आवाज़ आ रही है …….

3 thoughts on “रज़ाई की आँच

  • मनजीत कौर

    बहुत बढ़िया कहानी !

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कहानी !

    • अंशु प्रधान

      बहुत बहुत धन्यवाद सर …….आपकी प्रशंशा के शब्द फिर कुछ अच्छा लिखने की प्रेरणा देते हैं , आपकी आभारी हूँ ।

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