जानिए धर्म का मूल और उत्पत्ति
आर्य समाज के दिल्ली प्रवक्ता और मेरे मित्र आदरणीय श्री महेंद्र पाल आर्य जी मुझे संबोधित करते हुए लिखते हैं-
“अभी मेरे फेसबुक में हमारे एक मित्र श्रीकेशव आक्रोशित मन ने लिखा की. सभी धर्मों में महिलाओं के साथ दुर्व्यबव्हार हुवा है | मैंने अभी उन्हें लिखा की केशव बाबु सभी धर्मों का क्या मतलब है, यह सभी धर्म कब से है ? अगर सभी धर्म है तो इसकी शुरुयात किसी एक से ही हुई होगी, जो चलते चलते आज सभी में अर्थात अनेक में पहुंच गई है? अगर किसी एक से इसकी शुरुयात हुई तो वह कौनसा धर्म था ?”
आदरणीय श्री महेंद्र पाल आर्य जी , धर्म क्या है और इसकी शुरुआत कैसे हुई यह जानने के लिए आपको मानव सभ्यता के विकास के विषय में जानना होगा । मानव सभ्यता का विकास प्रकृति की वैसी ही स्वभाविक प्रक्रिया है जैसा की मानव का विकास । जिस प्रकार मानव का विकास उत्तरोत्तर होता गया , उसी प्रकार उसकी सभ्यता का विकास भी क्रमिक रूप से होता रहा। पर विकास की सीढ़ियों पर मानव ज्यो ज्यो ऊपर बढ़ता गया त्यों त्यों वह प्रकृति से दूर होता गया अत: उसके सभ्यता के विकास क्रम में भिन्नता बढ़ती गई । मानव सभ्यता के आरम्भ में मानव पूर्णत: प्रकृति पर निर्भर करता था । वह जंगली जानवरो की भांति नग्न अवस्था में रहता था । प्रकृति रूप से उतपन्न कंद मूल , फल , आदि खा के अपनी भूंख शांत करता था । रात्रि के समय कंदराओं , गुफाओं ,वृक्षो पर आश्रय लेता था । इस युग में न मनुष्य घर बनाता था और न आग जला पाता था ।
यह युग आदि युग कहलाता था , पर मानव और पशुओ में शारीरिक अंतर था वह सीधा हो सकता था जिससे वह पशुओ की तुलना से अधिक सुविधा जनक कार्यो को कर सकता था । उस का मष्तिष्क जल्दी सीख सकता था और अपने कार्यो में सुधार कर सकता था ।
परन्तु यह सुधार न तीव्र थी और न आश्चर्यजनक बल्कि बहुत धीमी और समय की लंबी दूरी तय कर के प्राप्त की गई ।मानव ने इस प्रक्रिया में पत्थरो के औजार से शिकार करनाऔर पशुओ की खालो से शरीर ढकने का हुनर सीख गया था । धर्म ने मानव जीवन में तब भी दख़ल दिया दिया था , पर वह प्राकृतिक घटनों जैसे की बिजली का चमकना , आग, मूसलाधार बारिश आदि से घबराता था क्यों ये सब चीजे उसे शिकार करने में रूकावट पैदा करती थी जिस कारण उसे कई कई दिनों तक भूखा रहना पड़ता ,उसका आश्रय छिन जाता । चुकी उतनी बुद्धि का विकास न होने के कारण इन प्राकृतिक घटनों का कारण नहीं समझ पाता था अलौकिक कारण समझता था ।
जब मनुष्य की बुद्धि और विकसित हुई तो खेती करने लगा और समाज में रहने लगा तब उसे भोजन खोजने की चिंता जाती रही, एक साथ रहने से सामजिक सुरक्षा भी मिलने लगी तब उसके पास बचने लगा । तब वह उन प्राकृतिक घटनों को जानने की चेस्टा करने लगा जो अभी तक उसके लिए ‘ अलौकिक’ बनी हुई थे । ऋग्वेद की स्तुतियाँ इस बात का प्रमाण है की तब मनुष्य यह नहीं समझ पाया था की इस प्राकृतिक घटनाओ के पीछे कारण क्या है ? सूर्य क्यों निकलता है, पानी कैसे बरसता है? आदमी मरता क्यों है? पृथ्वी कैसे बनी आदि प्रश्न अब भी उसके लिए अनसुलझे थे । तब उसने हर घटना के पीछे किसी अलौकिक देवता को मान लिया जैसे वर्षा कैसे होती है जब यह नहीं समझ पाया तो उस का कारण किसी ‘ वर्षा देवता :’का हाथ मान लिया ।
अब इस वर्षा देवता को खुश करने के लिए ‘ कुछ किया जाने लगा ‘ और यंही से शुरू हुआ धार्मिक विश्वास और कर्मकाण्ड ।
फिर क्या था पोथी की पोथी लिखी जाने लगी वर्षा देवता को खुश करने के लिए , कर्मकाण्ड , चढावे आदि का भी प्रवधान बना दिया गया । और यंहा से शुरू हुआ कुछ चतुर लोगो द्वारा जनता का देवताओ के नाम पर शोषण, उसके बाद और शोषण के लिए ईश्वर की रचना की गई ।
उसके बाद ‘ धर्म ‘ नाम के लचीले और लिजलिजे शब्द की रचना की गई और उन पोथियों को जिनकी रचना चतुर लोगो ने अपने जिज्ञासा और स्वार्थ के लिए किया था उसे धर्म का मूल बताया जाने लगा ‘ वेदों अखिलोधर्ममूलम’कहा जाने लगा ।
फिर उसके बाद जब पोथी को धर्म का मूल बता के बात नहीं बनती दिखी ( क्यों की यदि कोई वेद् पढ़ ले तो वह समझ सकता था की जिस वेदों वह धर्म का मूल बता रहें उसमें क्या अगडम बगडम लिखा है ) अत: पोल खुलने का भय सदैव बना रहता । तो आगे यह कह दिया गया की ” स्मृतिशीले च तदविदाम , आचारश्चैव साधुनामात्मतुष्टिरेव”
अर्थात- धर्म का मूल वेद् हैं पर जी उसके जानकर हैं उसे जैसा याद हो या वह जैसा व्यव्हार करता हो वही धर्म है। है ने खेदजनक बात ,यदि वेदों का जानकार , बरलात्कारि,मुफ्तखोर, धूर्त, अपराधी भी हो तो उसका आचरण ही धर्म है । क्या ऐसे तथाकथित ‘ धर्म ‘ से मनुष्य उन्नति कर सकता है? क्या मानव मानव में समानता हो सकती है? क्या ऐसे धर्म से समाज का आचरण नैतिक और शुद्ध हो सकता है? शायद नहीं ….
– केशव
नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः |
जानन्नपि हि मेधावी जड़वल्लोक आचरेत् ||
(मनुस्मृति अध्याय २.११०)
अर्थ: “कभी बिना पूछे वा अन्याय से पूछने वाले को कि जो कपट से पूछता हो, उसको उत्तर न देवे | उनके सामने बुद्धिमान् जड़ के समान रहे | हां, जो निष्कपट और जिज्ञासु हो, उनको बिना पूछे भी उपदेश करे |”
क्या आप युवासुघोष पर प्रदर्शित वा प्रकाशित अपने लेखों वा उन पर प्रतिक्रियाओं को देखते हैं? कृपया मेरी इस जिज्ञासा का उत्तर दे अन्यथा मैं समझूंगा कि आप नहीं देखते, फिर प्रतिक्रिया देने का लाभ ही क्या है?
प्रिया बंधू केशव जी। आपके तर्क पढ़े जो आपके ज्ञान को प्रदर्शित करते हैं। आपके विचार अंतिम नहीं हैं। कृपया इसका दूसरा पक्ष भी ईमानदारी से जानने व समझने की कृपा करें। आपसे निवेदन है कि एक बार सत्यार्थ प्रकाश शुद्ध मन से पढ़ने की कृपा करें। इससे आपकी सभी या कुछ शंकाएं अवश्य दूर होंगी जैसी कि हमारी हुई हैं। आपको शुभकामनायें। यहाँ इतना और कहना है कि ईश्वर इस सृष्टि और मनुष्य जीवन का निमित्त कारण है। ईश्वर ज्ञान संपन्न है। अतः उसने मनुष्य को भी ज्ञान संपन्न ही बनाया। सृष्टि का विकास नहीं ह्रास होता है। ज्ञान का भी विकास न होकर ह्रास ही होता है और यह न्यून वा अधिक होता रहता है। कृपया कभी प्रमाणित ११ सभी उपनिषदों को भी पढ़े। आप पाएंगे जो रहस्य विज्ञानं को आज भी नहीं पता चले वह रहस्य हजारों लाखों वर्ष पहले हमारे व आपके पूर्वजो को ज्ञात थे। कोई बात प्रतिकूल लगे तो क्षमा कीजिए।