मंजिल…..
लौट रहा हूँ
उन्ही पगडंडियों से
उन्ही रास्तों से
उन्ही सुरंगों से
उसी जंगल से होकर
गांव के सरोवर में खिले कमल
को निहारते हुए
गगनचुम्बी चिमनियों के शहर में
फिर से…..
मैं व्यर्थ ही क्षितिज तक चला गया था
सागर में इतराती लहरों ने कहा –
हमारे पास न सीप है न मोती
तब मैंने जाना
मंजिल मैं खुद था
रास्तों पर गुबार के समूह सा
भटक रहा था
किशोर कुमार खोरेन्द्र