मेरी कहानी -20
जैसे जैसे गेंहूँ के पौधे बड़े हुए जाते , मौसम में भी बदलाव होता रहता। गेंहूँ के खेतों में जो अनचाही जड़ी बूटीआं उगती रहती उन को भी छोटे से खुरपे जिस को रम्बा कहते हैं से जड़ी बूटीयाँ उखाड़ते उखाड़ते आगे की ओर बढ़ते जाते। जब खेत का आखीर आ जाता तो दुसरी ओर से काम शुरू हो जाता। यह सारा काम बैठ कर आगे बढ़ते हुए होता जाता। बैठे बैठे टांगें दुखने लगतीं और पसीने से निक्कर भी भीग कर अकड़ जाती। यह काम करना ही होता था क्योंकि इन जड़ी बूटिओं के ना निकालने से गेंहूँ के उत्पादन पर फरक पड़ता था और उतनी गेंहूँ नहीं हो सकती जितनी होनी चाहिए. इस काम का नाम था गुडाई करना। यह काम हर सीज़न में दो तीन दफा करना पड़ता था। जब जब खेत सूखने लगते , फिर कुएं से पानी देना पड़ता। क्योंकि खेत और भी बहुत थे , इस लिए यह काम चलता ही रहता था.
मेरा स्कूल का काम रात को रोटी खाने के बाद शुरू होता था। एक छोटे से चुबारे का कमरा मेरा स्टडी रूम होता था। इसको मैंने बहुत सजा के रखा हुआ था। इस में चार छोटी छोटी खिड़कीआं थीं जिन को नीले रंग के परदे लगे हुए थे। नवार का पलंग था, जिस के आगे एक मेज़ और कुर्सी होती थी। एक चार फ़ीट लम्बी शैल्फ थी जिस को अंगीठी बोलते थे और जिस पर माँ के हाथों का बना वेळ बूटिओं वाला कपडा होता था। शैल्फ पर बैटरी से चलने वाला रेडिओ होता था जिस के दोनों ओर मैंने फगवारे से फूलदान ला कर रखे हुए थे जिस में कागज़ के फूल रखे हुए थे जो बहुत सुन्दर थे। कमरे की छत से दो फ़ीट नीचे चारों ओर मैंने दो इंच चौड़ी एक फट्टी लगाईं हुई थी जो कमरे की फ़ोटोज़ को स्पोर्ट और एक लाइन में रखने के लिए थी ।
इन फोटूओं में बहुत से तो कैलंडर फ्रेम किये हुए थे लेकिन कुछ मेरी अपनी बनी हुई थी। इन में एक महात्मा गांधी की पेंसिल शेड में थी, एक जवाहर लाल नेहरू की , एक गुरु नानक देव जी की और एक गुरु गोबिंद सिंह जी की थी। सब से ज़्यादा सुन्दर बनी थी “सोहनी महीवाल ” की। यह मैंने एक कैलंडर से देख कर बनाई थी। मैं कोई इतना कारीगर तो था नहीं लेकिन मेरे एक दोस्त ने ही मुझे एक आइडिआ दिया था कि पहले किसी फोटो के ऊपर ग्राफ बनाओ फिर ग्राफ के सुकेअऱज़ को देख देख कर उसी तरह पेपर पर तस्वीर बनाते जाओ और इस में मैं सफल हो गिया था। पढ़ते पढ़ते देर हो जाती और माँ मुझे दूध का ग्लास देने आती। यह आदत मुझे आज तक है और रात को सोते समय दूध का कप चाहिए ही।और एक आदत मूंगफली खाने की थी जो आज भी है। ज़्यादा मूंगफली खाने से मेरा सिर दुखने लगता था। माँ मुझे झिड़कती रहती थी कि मैं इतनी मूंगफली न खाया करूँ। इसलिए मैं मूंगफली को छुपा कर रख लेता था और देर रात को खाता था। सुबह उठकर मैं मूंगफली के छिलके रुमाल में बाँध कर बाहर ले जाता था और बाहर ही फैंक आता था। मेरी स्काउट की वर्दी के साथ गले में बाँधने के लिए एक लाल रंग का रुमाल होता था। एक रात मूंगफली खा कर छिलके मैंने उस रुमाल में बाँध लिए कि सुबह को बाहिर फैंक आऊंगा लेकिन सुबह को मैं भूल गया और बाहिर चला गया। माँ कमरे को साफ़ करने आई तो लाल रंग के कपडे में कुछ बाँधा हुआ देख उस ने रुमाल खोल लिया और जब मैं वापिस आया तो माँ मुझे झिड़कने लगी कि ” फिर कहता है मेरा सिर दुखता है “. यह बात बहुत समय तक याद कर के माँ हंसती रही.
कभी कभी सुबह उठ कर मैं अपने कुएं को जाने की वजाए अपने दोस्त बहादर के खेतों में जंगल पानी जाया करता था और बहादर के खेतों में से मेथे तोड़ कर ले आता था और माँ उन को काट कर मेथिआं वाली मक्की की रोटी बना देती थी जो मैं दही और माखन के साथ खाता था। दादा जी को रोटी बहुत दफा मेरी बहन देने चली जाती थी और मैं स्कूल को चले जाता था। स्कूल से वापिस आते ही मैं दरांती ले कर खेतों में जा कर हरा हरा चटाला या सेंजी काटने खेत में बैठ जाता था। जब काफी हो जाता तो उसे एक कपडे में बाँध कर बाइसिकल की पिछली काठी पर एक साइकल की ट्यूब से बाँध देता था और घर ले आता था। घर आ कर इस हरे चटाले और सेंजी के साथ कुछ सूखा घास मिला कर मशीन से कुतरने लगता। इस काम से बहुत पसीना आता लेकिन काफी एक्सर्साइज़ हो जाती। फिर इस काटे हुए चारे को टोकरे में डाल कर गाए भैंस के आगे उन की खुरली में डाल देता। कुछ देर बाद जब वोह चारा खा लेती तो एक बड़ी बाल्टी में नल से पानी ले कर उन सब को पिलाता इस के बाद नहाने चले जाता और रोटी भी तैयार होती। इतनी कसरत के बाद रोटी भी खूब स्वाद लगती। इसके बाद हम दो तीन दोस्त इकठे होकर गियान चाँद की दूकान में चले जाते, गप्पें हांकते रहते और फिर वापिस घर आ कर पढ़ाई में मसरूफ हो जाते।
कभी कभी शनिवार और ऐतवार को दादा जी के साथ छकड़े में बैठ कर दूसरे कुएं को चले जाता जो गाँव से दो किलोमीटर था। वहां खेतों में दादा जी ने एक कमरा भी बनाया हुआ था और दो चारपाईआं और बिस्तरे भी रखे हुए थे। कभी कभी हम यहां ही सो जाया करते थे। एक दिन मक्की के खेत को पानी दे रहे थे। खेत कुएं से कुछ दूर थे, रात हो गई थी और दादा जी ने मुझे खेत में भेज दिया और कहा कि जब खेत पानी से भर जाए तो मैं उन्हें आवाज़ दे दूँ और दादा जी कुआं खड़ा करके बल्दों को खोल देंगे। एक तो मुझे अँधेरे में इतना दिखाई नहीं देता था , ऊपर से गीदड़ ऊंची ऊंची बोलने लगे जो अक्सर मक्की की छलिआं खाने आते थे। मैं डर से कांपने लगा और डर के मारे दादा जी को आवाज़ दे दी कि खेत भर गिया। दादा जी ने बलद खोल दिए। सुबह दादा जी ने खेत देखा तो पूरा भरा नहीं था, दादा जी ने मुझे बहुत झिड़का।
एक दिन दादा जी ने मुझे कहा कि स्कूल से फारग होने के बाद एक तो मैं उन की रोटी लेता आऊँ , दूसरा हल के आगे लगने वाला स्पाइक जिस को फाला कहते थे जो मट्टी को खदेड़ता है, लुहार से लेता आऊँ। मैं रोटी तो ले गया लेकिन वोह फाला भूल गया। जब दादा जी ने पुछा तो मैं शर्मिंदा हो गया। दादा जी गुस्से में बोले ” मैंने सुबह खेत में हल चलाना था, जा भाग जा और फाला ले के आ “. रात होने को थी , मैं उठ कर भागना शुरू कर दिया और रास्ते में ही अँधेरा होने लगा , रास्ता खेतों के बीच में ही जाता था , मैं रोता रोता जा रहा था। रास्ता एक उजाड़ ही था, रास्ते में शमशान भूमि में आग जल रही थी। मैं मुंह में वाहेगुरु वाहेगुरु बोलता जा रहा था। जब घर पहुंचा तो माँ दादा जी के बारे में बोलने लगी कि ” तेरे दादा जी का दिमाग सही नहीं है , इतनी रात को छोटे से बच्चे को भेजना , वोह भी इतनी दूर कहाँ की अकलमंदी है “. माँ की आँखों में आंसू थे।
मैं फाला ले कर फिर वापिस चल पड़ा। यों ही शमशान घाट के नज़दीक पहुंचा तो जल रहे मुर्दे के नज़दीक दो आदमी थे , एक आदमी एक लकड़ी से उस जल रहे ढेर को हिला जुला रहा था। मुझे क्या पता था कि यह मुर्दा जल रहा है क्योंकि मैंने कभी रात को तो क्या दिन को भी मुर्दा जलता देखा ही नहीं था। मैं उनको भूत चुढ़ेलें समझने लगा और रोता जा रहा था। रास्ता सुनसान था , ना कोई आदमी आने पर, ना जाने पर मुझे रास्ते में मिला। जब मैं फाला ले कर दादा जी के पास पहुंचा तो बहुत अँधेरा हो चुक्का था। दादा जी को भी शायद अपनी भूल का अहसास हो चुका था , उन्होंने मुझे गले लगा लिया लेकिन कुछ नहीं बोला। फिर मैं वहीँ चारपाई पर सो गया।
दूसरे दिन दादा जी के साथ माँ की बहुत लड़ाई हुई लेकिन दादा जी कुछ नहीं बोले, इस के अर्थ थे कि वे गलत थे और मन ही मन में पछता रहे थे। यह बात अभी तक ज़हन से नहीं निकली और अभी तक शमशान घाट में वोह दो आदमी दीखते हैं।
चलता ……
आपकी आत्म कथा अत्यंत प्रभावशाली है …… पढने की रूचि बनी हुई है
आपकी आत्म कथा अत्यंत प्रभावशाली है। एक किसान का जीवन वस्तुतः कठोर तप का जीवन होता है। आपने भी अपने बचपन में कठोर तप किया। आपकी बाँकपन की यादें वा स्मृतियाँ आपकी बहुत बड़ी पूंजी हैं. हार्दिक धन्यवाद। मैंने आज वीर सावरकर जी वाला लेख जिसमे लंदन के इंडिया हाउस का वर्णन है, युवासुघोष को भेज दिया है और वह साइट पर अपलोड होकर श्री विजयजी की उस पर प्रतिक्रिया भी अंकित हो गई है।
मनमोहन जी , आप ने सही लिखा , यह बचपन की यादें एक पूँजी ही तो होती है . हमेशा तो कोई भी इन को याद नहीं करता लेकिन जब ऐसी ही घटना कहीं होती है तो अचानक वोह याद आँखों के सामने आ जाती है . यह सब बातें हैं तो मामूली लेकिन इन के पीछे एक किसान की घोर तपस्या है जिस का फल जब उस को नहीं मिलता बल्कि खुदकशी की हालत को पौहंच जाता है तो देश के लिए चिंता का विषय है किओंकि एक किसान ही देश को भूख से बचा सकता है . आप का लेख मैं जरुर पडूंगा .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आत्महत्या का कारण घोर निराशा या असफलता के साथ भविष्य की चिंता हुआ करता है। किसान की फसल को मौसम व शत्रुओं आदि से खतरा होता है। कई बार अग्नि से भी नुकसान हो सकता है या हो जाता है। फसल बीमा और सरकारकी सहायता ही इसका उपचार हो सकता है। वेद कहते हैं की आत्महत्या किसी भी स्थिति में नहीं करनी चाहिए। आत्महत्या का एक बहुत बड़ा कारण अज्ञान भी है। आत्महत्या से समस्याएं घटने के स्थान पर और बढ़ जाती हैं। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपने साथ और अपने परिवार दोनों के प्रति अत्याचार करता है। मैं भी प्रयास करूँगा कि यदि हो सका तो आत्महत्या पर भविष्य में एक लेख लिखूं। mmmmmm
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आत्महत्या का कारण घोर निराशा या असफलता के साथ भविष्य की चिंता हुआ करता है। किसान की फसल को मौसम व शत्रुओं आदि से खतरा होता है। कई बार अग्नि से भी नुकसान हो सकता है या हो जाता है। फसल बीमा और सरकारकी सहायता ही इसका उपचार हो सकता है। वेद कहते हैं की आत्महत्या किसी भी स्थिति में नहीं करनी चाहिए। आत्महत्या का एक बहुत बड़ा कारण अज्ञान भी है। आत्महत्या से समस्याएं घटने के स्थान पर और बढ़ जाती हैं। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति अपने साथ और अपने परिवार दोनों के प्रति अत्याचार करता है। मैं भी प्रयास करूँगा कि यदि हो सका तो आत्महत्या पर भविष्य में एक लेख लिखूं।
भाई साहब, यह कड़ी पढ़कर भी आनंद आया. खेतों में निकाई-गुड़ाई का काम मैंने भी अपने बचपन में किया है. खेतों में पानी भी लगवाया है. हालांकि हम अपनी पढ़ाई के कारण बहुत काम नहीं कर पाते थे. बचपन में अँधेरा होने पर हमें भी डर बहुत लगता था. बाद में सारा डर निकल गया. अब तो बड़े बड़े भूत मुझे देखकर डर के मारे भाग जाते हैं. हा….हा…हा….हा….
विजय भाई , किसान के काम तो सारे देश में एक जैसे ही हैं , नाम इलग्ग हो सकते हैं . जो भूत चड़ेलों का आप ने लिखा , ऐसी बहुत सी बातें बचपन और जवानी में देखने को मिलीं जिस से मुझे यह फैदा हुआ कि इन बातों को समझने का अवसर मिला कि इस डर के पीछे किया कारण हैं और हुशिआर लोग कैसे भोली भाली जनता को लूट रहे हैं और पिछले १५ साल से तर्कशील सोसाएटी बरनाला पंजाब से जुड़ा हूँ .