आत्मकथा

स्मृति के पंख – 6

अब दुकान का काम मैं पूरी तरह कर लेता। सुबह की ड्यूटी मेरी थी। सुबह दुकान खोलना तकरीबन 5 बजे। भ्राताजी तो तकरीबन 8 बजे दुकान पर आते और पिता तो 10 बजे पहले कभी दुकान पर नहीं आये। 5 से 8 बजे तकरीबन 1 बोरी गंदम (कणक) और 1 बोरी जौ और नकद 20-25 रुपयेे वट्टक हो जाती। सुबह काफी रश रहता। सौदा क्या बिकता, 1 आना की मिशरी, 1 पैसे की चाय, 2 पैसे का गुड़, धेले (1/2 पैसे) की माचिस, धेले का तम्बाकू। बस ऐसे ही ग्राहक होते। दिन भर भी हमारी दुकान पर काफी रश रहता। जब घर से रोटी तैयार की आवाज आ जाती कि खाने के लिए आओ, तो चाहे कितना भी रश हो, पिताजी रोटी खाने चले जाते और हमें भी कहते रोटी के लिए सब करना है, तो तैयार रोटी खूब आराम से खाओ, फिर काम पर आओ। बहुत सस्ता जमाना था। गंधम ढाई रुपये मन, जौ 1 रुपया 50-60 पैसे मन, मक्की दो-पौने दो रुपये मन। मिट्टी का तेल 4 रुपये कनस्तर (टीन), दालें मूंग, माश, छोले (सफेद) तकरीबन 4 रुपये मन। तीन मन सौेदा एक बैल पर लाते और 3 बैल का सौदा जब मुकम्मल भरा जाता, तो तकरीबन 100 रुपये का होता। बजाजी जब 300 रुपये की हो जाये, तो हमारा अन्दाजा था 3 मन हो गई है। एक बैल के लिए 300 रुपये की बजाजी खरीदते। उन दिनों बढ़िया लट्ठा, आरा और चाभी 10 रुपये थान (40 गज का), कोरा लट्ठा मारकीन 5-6 रुपये थान। मलमल बढ़िया 4 रुपये थान (20 गज)। आम रेढ़ियों पर कई किस्म के कपड़े होते और रेहढ़ी वाले ढाई आने गज की आवाज लगाते। देसी घी 12-13 आने सेर।

वो लोग सौदा खरीदने के लिए घी और गल्ला लाते थे और सौदा ले जाते। इस तरह जब गल्ला और घी जमा हो जाते तो हम मरदान में सौदा कर आते और वो आढ़ती लोग गाँव में आकर ही माल तुलाकर ले जाते। हमारी दुकान में ग्राहक को जो चीज चाहिए मिल जाती। बजाजी, मनयारी, करयाना, पंसारी, दवाइयां, तिला, किनारी। तिब (हकीमी), जनाना-मर्दाना बीमारियों बारेे में पूछताछ, सब सलाह-मशवरा पिताजी उन मरीजों को देते और साथ में दवाई भी। जो मरीज दुकान पर न आ सके, बच्चे, बूढ़े या जनाना, उनको घर देखने चले जाते। अगर किसी की मौत हो जाए, तो नम्बरदार और 2-4 मुखिया आदमी आकर कफन, चावल, गुड़, साबुन वगैरह जो वह लोग रस्म के मुताबिक लेते थे, वह ले जाते। ऐसे रुपये का हमने कभी तकाजा नहीं किया। जब उनके पास हो जाते, तो वह लोग खुद ब खुद उन नम्बरदार वगैरह को लाकर हिसाब चुकता कर जाते। माल्टा और सन्तरा की जरूरत तो कभी नहीं हुई। गाँव के चारों तरफ बागान थे, बहुत ज्यादा हमारे खाने के लिए भी आ जाते। बढ़िया 4 रु. मन, नाशपाती 3 रु. मन, टांगू (बबूगोशा) दो-ढाई रु. मन, तेल सरसों 16-18 रु. मन। क्या जमाना था। जरूरयात जिन्दगी बहुत सस्ती थी, लेकिन पैसा बहुत कम था।

दुकान पर घी और दूध बहुत आ जाता और पिताजी लेने से कभी इनकार नहीं करते। घी तो फिर जमा हो जाता था और खराब नहीं होता था। लेकिन दूध फट भी जाता, तो मुझे दुख होता कि नुकसान हो रहा है। लेकिन पिताजी कहते कि अगर हाथी जिन्दा है तो 1 लाख का, मर जाए तो सवा लाख का। दूध अगर फट गया है, तो कोई बात नहीं पनीर बन जायेगा। लेकिन याद रखो, दूध दही रतन है, यह भाग्य से आता है और एक दिन ऐसा भी आयेगा, जब देसी घी आपको दवाई के लिए भी अच्छा मिलना मुश्किल होगा। और दूसरी बात लोग सोने का टका देकर अटक का पुल पार करने की कोशिश करेंगे, लेकिन पार नहीं हो पायेंगे। अटक एक दरिया का नाम है और शहर का भी। वह दरिया पंजाब और फ्रंटियर को अलग करता था। दरिया के पार फ्रंटियर का इलाका शुरू होता था और इस तरफ पंजाब का इलाका शुरू होता था। वहाँ बाबा काली कमली वाले का डेरा भी था और बैसाखी वाले दिन भारी मेला भी लगता था। थोड़ा सा आगे हसन अब्दाल स्टेशन था और साथ में नजदीक ही पंजा साहब का गुरुद्वारा। वहाँ भी बहुत भारी मेला बैसाखी का लगता था।

अब फ्रंटियर में सुर्खपोशधारी तारीख शुरू हो चुकी थी। यह जमात आल इंडिया कांगे्रेस के साथ मुश्तरक्का थी। सिर्फ थोड़ी रंगत सूबा सरहद में अलग दी गई। कांग्रेस के तिरंगे झण्डे के साथ दूसरा लाल झण्डा, जिस पर अल्ला हो अकबर लिखा होता और वालंटियर सब सुर्खपोश होते। सरहदी रहनुमा खान अब्दुल गफ्फार खाँ, जिन्हें सरहदी गांधी और बाशा खाँ (बादशाह खाँ) भी कहते थे, वो महात्मा गांधी के बहुत मदारब भी थे और नजदीक भी। ए0आई0सी0सी0 के मेम्बर थे। बाशा खाँ की रहनुमाई में एक पठान जंगजू कौम को अदम तशद्द के रास्ते पर लाने में सफल हुए। कांग्रेस का जो आदर्श था मुकम्मल आजादी, वही उन सुर्खपोशों का भी था। अंग्रेजों की गुलामी से आजादी हासिल करना। हमारे गाँव में भगतराम तलवाड़ ने इस तारीख में बढ चढ़कर हिस्सा लेना शुरू किया। जलसे, जुलूस और वालंटियरों की भर्ती का काम शुरू किया। भगतराम की मकबूलियत भी दिन पर दिन बढ़ती गयी और साथ में वालंटियरों की भर्ती भी। अब समस्या भगतराम को यह पड़ी कि उसके पास फण्ड तो कोई न था, 4 आने फी दाखला था। लोगों के पास तो 4 आने भी न होते। फार्म भरकर भगतराम अपनी जेब से 4 आने दे दें। लेकिन अब बड़ा सवाल था वर्दी का। 1 वर्दी में 1 रुपये 4 आने का खद्दर, 4 आने रंगाई, 8 आने सिलाई, 2 रुपये फी वर्दी लगते थे।

मुझे भगतराम ने इस काम में मदद के लिए कहा। उसने कहा फण्ड भी तुम रखो, लेकिन यह काम तुम्हारी मदद से होगा। हम दोनों बाकी खर्चा बर्दाश्त करेंगे। हमारी तो कपड़े की दुकान थी, जो आदमी भगतराम का रुक्का ले आता, उसे मैं कपड़े दे देता। ट्रेनिंग भी भगतराम (बी0आर0) उन्हें बहुत अच्छी देते। जिस गाँव के जलसे या जुलूस में हमारे गाँव के वालंटियर शामिल होते, तो लगता वो कुछ ज्यादा ही ट्रेंड हैं। बी0आर0 पुश्तो में भी अच्छी तकरीर लेते और उसका पूरा असर लोगों पर पड़ता। नवाब तोरू तक बात पहुँची, तो उसे यह सब अच्छा नहीं लगा। उसने पिताजी, चाचाजी को और 2-3 नम्बरदारों को बुलवाया। नवाब का मतलब तो सिर्फ चाचाजी से था। बी0आर0 की सुर्खपोशी तारीख से वो गुस्से में था। नवाब ने चाचाजी को कहा, “भई गुरुदास, तेरा लड़का मेरे गाँव में सुर्खपोशों की तारीक का बानी है। यह ठीक नहीं है। उन्हें समझा लो मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता”। और चाचाजी ने जो जवाब उसे दिया, वह यह था, “नवाब साहेब, यह ऐसा तूफान नहीं है, जिसे तुम या मैं रोक सकते हैं। यह तो हमें तिनके की तरह बहा ले जायेगा। इस तारीक को तुम दबा नहीं सकते और न ही अंग्रेज। इस तूफान ने तो अब बढ़ना ही है।” नवाब को इस जवाब से गुस्सा तो बहुत आया, पर कर भी क्या सकता था।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 6

  • Man Mohan Kumar Arya

    पूरी क़िस्त पढ़ी। रोचक एवं ज्ञानवर्धक है।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यह कड़ी बहुत रुचिकर लगी , आजादी के रास्ते बन चुक्के थे और गुरदास जी की बात कितनी सही निकली कि धीरे धीरे आजादी की जंग तूफ़ान बन गई . बात नवाबों महाराजों और जैलदारों की तो इन लोगों के पीछे अंग्रेजों का डंडा था , इन्हें अपनी नवाबी नमर्दारी और ज़िल्दारी खो जाने का डर था किओंकि यह लोग अंग्रेजों के पिठू थे . इन लोगों के बलबूते अंग्रेजों ने भारत पे राज किया . मैं अपनी कहानी में गाँव के जैलदार का जीकर किया था जो मेरे दोस्त के दादा थे . इस दादा के पिता जी को जिस का नाम बिशन सिंह था को बब्ब्रों ने गोली से मारा था . इसी वक्त पंजाब में बब्बर अकाली लहर शुरू हो गई थी . इन का विशवास था कि यह लोग अंग्रेजों के थम्ब हैं , इसी लिए पहले इन को मारना चाहिए . मेरे पिता जी ने बताया था कि उस वक्त मेरे पिता जी पांच शे वर्ष के थे और उन्होंने बिशन सिंह की लाश देखि थी .

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया ! गुरुदास जी ने नबाब को जो जबाब दिया था, इतिहास गवाह है कि वह सत्य निकला.

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