माँ चुप क्यों हो?
माँ, चुप क्यों हो कुछ बोलो तो ?
अपने मन की पीड़ा को
मेरे आगे खोलो तो
माँ तुम क्यों चुप हो ?
कर्तव्य निष्ठ की बेदी बन
तुमने अपने को सुलगाया
धीरे-धीरे जली
सुवासित सदन बनाया
मंत्रों सी गुंजित होती
जब-जब आँगन में
मेरा मन लयबद्ध
गीत गाने लग जाता
मेरी मुसकानों में
ढूंढा था तुमने, सुख अपना
अब क्यों चुप हो ?
कुछ तो बोलो —–
अपनी दर्दीली चुप्पी को
मेरे आगे खोलो तो
माँ तुम …………………….।
हर बुरी बला के आगे बनती
ढाल रही तू
मेरे हर छोटे कृत्यों पर हुई
निहाल बड़ी तू
उत्साह तुम्हीं से सीखा मैंने जीने का
वो हुनर तुम्हीं से आया मुझमें
जिज्ञासा की, थैली सीने का
अब क्यों चुप हो ?
कुछ बोलो तो
बेबस हुईं भावनाओं को
मेरे आगे खोलो तो
माँ तुम …………………. ।
माँ तेरे मधु-मय शब्द सुनाई
जब ना पड़ते
मेरे मन में शंकाओं के काले-
बादल घिरते
तू खुश होगी तब ही मैं जी पाऊँगा
तेरी ही आशीषों से जग में
कुछ नव कर पाऊँगा
इसलिए कह रहा हूँ तुम अपनी
मुसकान बिखेरो
हर पल हँसती रहो और
ममता से बोलो
अपनी सिथिल हुई वाणी को
मेरे आगे खोलो तो
माँ तुम ………………. ।
मैंने जिस आँगन में अपने
बच्चों को बड़ा किया
एक-एक पल उनपर
अपना वार दिया
सोचा था गरिमा लेकर बच्चे
उतरेंगे जग में
अपने संग मेरा भी ऊंचा नाम करेंगे
पर हाय विधाता !
तूने ये क्या कर डाला ?
मेरे इतने प्यारे बच्चों को
शैतान बना डाला अब
नारी की इज्जत है ना तो महतारी की
इसलिए बताओ बेटा
अब मैं क्या बोलूँ ?
अपनी चुप्पी को कैसे तोड़ूँ
उनके कृत्यों ने अनगढ़ ताले
से मेरे मुख पर हैं डाले
अब तुम्हीं बताओ
कैसे अपना मुख खोलूँ ?
लज्जित होकर जग में
कैसे मैं जी पाती
होता अगर मर जाना
तो इस अपमानित जीवन को
स्वाहा कर जाती
या बन जाती अंधी अपने अंतर मन से
फिर मैं भी उनके कुकृत्यों पर
खूब सिहाती
रहती मगन और गीतों में
खिल-खिल जाती
पर अब ये सब कैसे होगा ??
— कल्पना मिश्रा बाजपेई
बहुत अच्छा और मार्मिक गीत !