संस्मरण

मेरी कहानी – 22

सारी गेंहूँ गाँव वाले कूएँ पे आ गई थी. बहुत बड़ा ढेर लग गया था . गेंहूँ कि गहाई यानी कटी हुई गेंहूँ को बैलों के पैरों से मसलना और उस  में से गेंहूँ और भूसा  इलग्ग  इलग्ग करना  एक बहुत बड़ा काम था. पहले दादा जी ने एक पांच छे फ़ीट लम्बा और चार फीट चौड़ा लकड़ों का फ्रेम बनाया. इस को फ़लाह कहते थे। उस फ्रेम में कांटेदार झाडिओं से काटे हुए टुकड़े भरे गए . अच्छी तरह भरने के बाद उस कि उपरली तह घा फूस से भरी गई ताकि किसी को  वे कांटेदार झाडीओं की टहनियाँ चुभे नहीं किओंकि कांटेदार टुकड़े बहुत तीखे होते थे. जब वो तैयार हो गिया तो खेत की खुली जगह में तकरीबन पचास गेंहूँ के बण्डल खोल कर खिलार दिए गए । यह खिलार्ने यानी (spread ) करने का काम एक तंगली के साथ होता था। यह तंगली तकरीबन चार फ़ीट बड़े पोल के आखिर में हाथ की उन्ग्लिआं जैसा बनाया होता था जिस से काम आसान होता था। फिर दो बैलों के गले में एक फ्रेम जिस को पंजाली कहते थे से जकड दिया जाता था और दो रस्से कांटेदार  झाडीओं के बने फ्रेम से बाँध कर बैलों के फ्रेम से बाँध दिए जाते थे।

जब यह सब तैयार हो गिया तो दादा जी ने बैलों को चलने के लिए एक सोटी से हांकना शुरू किया।  बैल एक गोल चकर में गेंहूँ के ऊपर चलने लगे और साथ ही वोह फ्रेम यानी फलाः गेंहूँ के ऊपर चल कर गेंहूँ को मसलने लगा। फ्रेम से लगे कांटेदार झाडीओं के तीखे टुकड़े इसी लिए होते थे कि गेंहूँ काट सकें । फिर दादा जी ने मुझे भी ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी और मैं ने कुछ ही मिनटों में समझ लिया और खुद बैलों के पीछे पीछे चलने लगा। यह काम सारा दिन कड़कती धुप में होता था। सुबह से शाम तक ऐसे ही चलता था। जब तीसरा दिन शुरू हुआ तो गेंहूँ का  भूसा  बारीक होने लगा  और शाम तक बिलकुल बारीक हो गिया । तीन दिनों में पचास बंडल जिस को भरीआं कहते थे बारीक हो गईं और शाम को मैं और दादा जी ने सारी गेंहूँ भूसे  के साथ सैंटर में तंगलिओं  की मदद से इकठी कर दी। इस इकठी हुई गेंहूँ के इर्द गिर्द पचास बंडल यानी भरीआं और खिलार दी गईं और वोह ही काम शुरू हो गिया। तीन दिन बाद जब वोह भी बारीक हो गईं तो उस को भी इकठा करके पहले पीसी हुई गेंहूँ के ऊपर इकठा कर दिया।

बहुत दिन ऐसे ही चलता रहा और जब सारी गेंहूँ पिस गई तो तंगलिओं की मदद से उसे इकठी करके उसे एक बड़े और लम्बे ढेर की शकल  दे दी गई। इस बीच मौसम का बहुत डर लगा रहता था कि कहीं बारिश या आंधी से सब कुछ बर्बाद ना हो जाए। अब जो काम था वोह मुझ से नहीं हो सकता था। इस लिए दादा जी ने दो चर्मकारों को बुला लिया था। मेरा काम सिर्फ या तो पशुओं का खियाल रखना होता था, यानी उनको चारा देना और पानी पिलाना या घर से उन लोगों के लिए खाना लाना।  तीन आदमी उस बड़े लम्बे गेंहूँ के ढेर पर चढ़ गए और तंगलिओं से भूसा  मिली गेंहूँ को उठा उठा कर जोर जोर से ऊपर की ओर उछाल कर फेंकने लगे। हवा से गेंहूँ तो उसी जगह गिरती रहती थी क्योंकि गेंहूँ भारी होती थी लेकिन भूसा हल्का होने के कारण दूर दूर तक उड़ने लगा । इस काम में अच्छी हवा की भी बहुत जरुरत होती थी वर्ना भूसा वहीँ आ कर गेंहूँ के साथ गिर सकता था।

एक दिन मैं सभी लोगों के लिए घर से खाना लाया। रोटीआं और सब्ज़ी एक बड़े कपडे में बाँधी हुईं थी और लस्सी एक बड़ी बाल्टी में थी। जब मैंने दादा जी को रोटी खाने के लिए कहा तो दादा जी कहने लगे,” अब हवा बहुत अच्छी चल रही है, हम कुछ और काम कर लें, तू इंतज़ार कर”. मैं रोटीआं ले कर आम के वृक्ष के नीचे बैठ गिया। फिर कुछ देर बाद मैं हरे हरे घास पर लेट गिया। मुझे नींद आ गई। पता नहीं कितनी देर सोया हूँगा कि जब अचानक मुझे जाग आई तो उठ कर देखा रोटिओं वाला कपडा है नहीं था। मैंने काम करते हुए दादा जी की ओर देखा तो वोह सभी अपने काम में बिज़ी थे। मैं घबरा गिया कि रोटीआं कौन ले गिया। उठ कर मैंने इर्द गिर्द देखा तो एक भागता हुआ कुत्ता दिखाई दिया , देखा वोह रोटीआं लिए जा रहा था। मैं डंडा ले कर कुत्ते की ओर भागा। मैं इतनी तेज़ी से भागा कि कुत्ता भी मुझे देख कर रोटीआं वाला बण्डल फैंक गिया। मैंने वोह बंडल उठाया और आम के बृक्ष के नीचे बैठ गिया।  फिर मैंने रोटीआं वाला कपडा खोला तो देखा दो रोटिओं  पर कुत्ते के दांतों के निशान  थे। मैंने दो रोटीआं निकाल कर भैंस के आगे फैंक दी और कपडा उसी तरह बाँध दिया। दादा जी का मुझे डर था कि अगर उन को पता चल गिया तो वोह गुस्सा मुझ पर निकालेंगे।

कुछ देर बाद दादा जी आ गए और रोटीआं वाला कपडा खोलने लगे। पहले उन्होंने तीन तीन रोटीआं सभ के हाथों पर रख दी , फिर सभ की रोटिओं  पर सब्ज़ी डाल दी। आखिर में खुद रोटिओं पर सब्ज़ी रख कर खाने लगे। चर्मकारों के अपने अपने ग्लास थे जो वोह घर से लाये थे। मैंने उन के ग्लासों में लस्सी डाल दी और दादा जी को भी एक ग्लास में लस्सी डाल दी। सभी बोल रहे थे कि सब्ज़ी बहुत स्वादिष्ट थी। मैं मन में भगवान का शुकर मना रहा था कि किसी को पता नहीं चला था कि रोटीआं कुत्ता ले गिया था। यह बात मैंने बहुत वर्ष तक घर वालों से छुपाई रखी। बहुत वर्षों बाद जब १९६५ में मैं इंडिया गिया तो बातों बातों में मैंने वोह वाकया दादा जी को सुनाया, तो दादा जी इतने हँसे कि बस हँसते ही रहे।

रोटी खाने के बाद सभी फिर काम में मसरूफ हो गए। शाम तक सारा काम हो गिया। भूसे को बड़े बड़े कपड़ों में बाँध कर, सर पे उठा कर ले जाने लगे और एक बड़े कमरे में डाल दिया। अब जो गेंहूँ थी , उस में अभी भी मोटा मोटा भूसा था । दूसरे दिन उस गेंहूँ के ऊपर फिर बैल चलाए गए और जब बारीक हो गई तो उसे फिर हवा से उड़ा कर साफ़ गेंहूँ इलग्ग की गई। इस गेंहूँ को तकड़ी से तोल तोल  कर बोरिओं में भरा गिया। उन भरी हुई बोरिओं में से कुछ को छकड़े पर लाद कर घर ले आये और फिर बहुत सी बोरिओं को छकड़े पर लाद कर एक बड़े  कपडे से ढक दिया गिया। यह गेंहूँ भरी बोरीआं सुबह होने से पहले ही शहर को बेचने जाना था। मेरी बहन मेरे और दादा जी के लिए खाना यहां खेतों में ही ले आई थी क्योंकि हमने गेंहूँ की हिफाज़त के लिए छकड़े के नज़दीक ही सोना था। छकड़े के साथ ही एक चारपाई पर मैं सो गिया और दादा जी छकड़े के ऊपर ही कुछ कपडे बिछा कर सो गए। क्योंकि चोरों का भी डर होता था कि कहीं सारी गेंहूँ के साथ चोर छकड़ा न ले जाएँ।

सुबह को दादा जी ने मुझे उठाया। दादा जी ने बैलों को छकड़े के आगे जोत दिया और मैं छकड़े के ऊपर बैठ गिया। अभी बहुत अँधेरा ही था और तीन और किसान भी हमारे साथ अपने अपने छकड़े शहर को ले जा रहे थे. बैलों की घँटीआं बजने लगीं और चार छकड़े चलने लगे। कुछ दूर जा कर एक छोटी सी नदी जिस को हम कैल बोलते थे आ गई। कैल में पानी तो इतना नहीं था लेकिन कीचड़ बहुत था। एक एक करके तीन छकड़े कैल के पार हो गए लेकिन एक छकड़ा कीचड़ में धंस गिया। बैलों का सारा जोर लग गिया लेकिन छकड़े का एक पहिया निकल नहीं रहा था। फिर एक किसान ने अपने छकड़े को आगे करके एक मोटे रस्से से अपने छकड़े को धंसे हुए छकड़े से बाँध दिया। दोनों छकड़ों के बैल जोर लगाने लगे और जल्दी ही छकड़ा कीचड़ से निकल गिया। रास्ता कच्चा ही था लेकिन जल्दी ही हम एक गाँव के नज़दीक आ गए जिस का नाम बारन है. इस गाँव से जब हम आगे गए तो दिन की लौ शुरू हो गई थी।

आगे जब हम दूसरे गाँव प्लाही में आये तो रास्ता गाँव की गलिओं में से हो कर जाता था। जब गाँव पार कर गए तो छकड़े एक बहुत बड़े और गंदे तालाब के साथ साथ चल रहे थे। तालाब रास्ते के इतना नज़दीका था कि डर लगता था कि कहीं छकड़ा उस गंदे तालाब में गिर ना जाए लेकिन हम तालाब के दुसरी और पौहंच गए। ( अब इस तालाब को मट्टी से भर उस जगह बहुत बड़ीआ कालिज बना हुआ है).  पलाही से फगवाड़ा को सीधी  सड़क जाती है लेकिन उन दिनों पहले प्लाही की नहर के रास्ते जाना पड़ता था , फिर यह रास्ता हुशिआर पर से फगवारे जाने वाली सड़क को मिला देता था , यह रास्ता काफी लम्बा हो जाता था।

खैर जब हम सड़क पर आ गए तो बैलों के लिए भी आसान हो गिया था। जब फगवारे के नज़दीक पुहंचे तो चुंगी पे ठहरना पड़ा जिस पर हमें टैक्स यानी चुंगी भरणी होती थी। टैक्स दे कर कुछ आगे जा कर जीटी रोड आ गई और हमारे सामने थी जगतजीत शूगर मिल। अब हम जीटी  रोड पर जाने लगे और जल्दी ही मंडी आ गई। मंडी के गेट के नीचे से सभी छकड़े मंडी में दाखल हो गए। आगे देखा जगह जगह गेंहूँ के ढेर लगे हुए थे। हमारा आढ़ती हमें देखते ही हमारी तरफ आ गिया और सभी छकड़ों पर लदे गेंहूँ को मज़दूरों से उतरवा लिया। हमारे गेंहूँ की ढेरियां भी लगा दी गईं। दादा जी ने बैलों के आगे चारा डाल दिया और मुझे साथ ले कर एक आलू चने वाली रेहड़ी के पास आ गए। घर से लाये पराठों को रेहड़ी वाले ने एक बड़े से तवे पर रख कर गरम कर दिया और चनों की प्लेटें हम को दे दीं। पराठे बहुत स्वाद लगे। इस के बाद चाए भी पी।

तकरीबन एक दो बजे हमारी गेंहूँ की बोली हुई और हम आढ़ती की बड़ी सी दूकान में चले गए। दादा जी ने  घर के लिए काफी सामान खरीदा, उस को छकड़े पे रखाया। एक हलवाई की दूकान से मिठाई भी ली। आढ़ती की दूकान में फिर वापिस आ गए। आढ़ती हिसाब किताब करने लगा। जब वोह अपनी वही पे लिख रहा था तो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वोह किया लिख रहा था। शर्माते शर्माते मैंने पूछ ही लिया और बोला, “लाला जी यह कौन सी भाषा है “. लाल जी बोले, “बेटा, इस को लंङे बोलते हैं”. फिर वोह समझाने लगे, पहले उन्होंने हिंदी का १ लिखा, फिर उस के साथ ऊपर से नीचे तक एक छोटी सी लकीर खींच दी और बोले, इस को कहते हैं एक रूपया चार आने यानी सवा रूपया, फिर उन्होंने एक लकीर और खींच दी और बोले , यह है एक रूपया आठ आने यानी डेढ़ रूपया , फिर एक और लकीर खींचने के बाद बोले , यह है एक रूपया बारा आने यानी पौने दो रुपैये। इस के बाद उन्होंने रूपए आने और पैसे लिख कर दिखाए। फिर जब भी कभी मैं दादा जी के साथ मंडी आता तो लाला जी हंस कर पूछते,” बरखुरदार लंङे समझ में आ गए ?”. मैं भी हंस कर जवाब दे देता कि मुझे आ गए।

चलता…।

6 thoughts on “मेरी कहानी – 22

  • RAJKISHOR MISHRA [RAJ]

    VAAH

  • Man Mohan Kumar Arya

    आत्मकथा की भाषा एवं घटनाओं को आद्यांत पढ़ा व समझा। सभी घटनाओं को बहुत ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। कुत्ते के रोटिया ले भागने की बात से उस समय आप पर जो डर वा दुःख आया था उसे विचार करके अनुभव किया। गेहूं की बालियों से गेहू को गाहने वा उसे छकड़े की सहायता से नगर में मंडी तक पहुँचाने की घटनाएँ भी सजीव वा जीवित जाग्रत हैं। एक किसान को कितना परिश्रम करना पड़ता है। यह भी विचार आया की किसान तो खेत तैयार करता है, बीज बोता है, खाद व पानी देता है, फसल की रखवाली करता है, परन्तु अन्न तो ईश्वर ही बनाता व पैदा करता है फिर भी किसान को कितनी मेहनत करनी पड़ती है और पसीना बहाना पड़ता है। यह पुरुषार्थ ही जीवन का सही सबक है। धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , सही कहा आप ने ,कि किसान को कितने दुःख झेलने पड़ते हैं . यह ठीक है कि हम को खेती को छोड़े हुए वर्षों बीत गए हैं लेकिन बहुत वोह किसान की मुश्कलें कभी भूल नहीं सकता . खेतों में लहू पसीना एक करना और लगातार मौसम की चिंता यह सब बातें ऐसी हैं कि किसान के आगे सर झुकाने को जी चाहता है. मुश्कलें तो शुरू से ही ऐसी रही हैं लेकिन अब बहुत ज़िआदा बड गई हैं . उस समय जिंदगी सादी थी और खेती के खर्चे भी इतने नहीं होते थे किओंकि खाद को कोई जानता ही नहीं था , कूएँ होते थे , आज तो तिऊब वैल के खर्चे ही बहुत हैं , इस से भी बुरी बात यह कि कभी बिजली आती है कभी नहीं .ट्रैक्टर का खर्चा इलग्ग . पहले ही इतना क़र्ज़ लिया होता है कि फसल बर्बाद होने से कर्ज वापिस चुकाना कठिन हो जाता है और किसान सोच सोच कर ही पागल हो जाता है कि वोह किया करे .तभी तो इतनी खुद्कशिआन हो रही है .

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद श्रद्धेय महोदय जी। आपका एक एक शब्द सत्य एवं ग्राह्य है। महर्षि दयानंद ने एक वेद मंत्र की व्याख्या करते हुए लिखा है किसान राजाओं का भी राजा होता है। इसलिए किसान को उचित सम्मान मिलना चाहिए। परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि किसान को उचित सम्मान और सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। राजव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि देश में कहीं कोई आत्महत्या कभी न करें। जहाँ चाह वहां राह। संसार में हर समस्या का समाधान है। हल करने वाले होने चाहियें।

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, यह गेंहू की बालियों में से दाने निकालने का काम हमारे यहाँ भी ठीक इसी तरह होता था, लेकिन तंगली जैसी कोई चीज मेरी जानकारी में नहीं बनती थी. हम तो ऐसे ही तीन दिन तक बैलों को बालियों के ढेर पर घुमाते रहते थे.
    कुत्ते द्वारा रोटी ले भागने और फिर आप द्वारा उनको छुड़ाने का किस्सा पढ़कर बहुत हंसी आई. ऐसा सब जगह होता है.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , वैसे काम तो हर जगह ऐसे ही होता था लेकिन हर परदेस में नाम इलग्ग इलग्ग हैं . जो आप ने उस फ्रेम की बात लिखी है , सारे पंजाब में ऐसे ही बनाते थे . जो भूसा होता था उस को पंजाब में तूड़ी बोलते हैं जिस को अब पंजाब के लोग बस याद ही कर सकते हैं किओंकि अब सब बड़ी बड़ी मछीनों से काम होता है और वोह भूसा यानी तूड़ी नहीं बन सकती . कुत्ते की बात तो मैं बहुत दफा दोस्तों को सुना चुका हूँ .

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