मानव
मानव अब मानव नहीं रहा।
मानव अब दानव बन रहा।
हमेशा अपनी तृप्ति के लिए,
बुरे कर्मों को जगह दे रहा।
राक्षसी वृत्ति इनके अन्दर।
हृदय में स्थान बनाकर ।
विचरण चारों दिशाओं में,
दुष्ट प्रवृत्ति को अपनाकर।
कहीं कर रहे हैं लुट-पाट।
कहीं जीवों का काट-झाट।
करतें रहते बुराई का पाठ,
यही बुनते -रहते सांठ-गाँठ।
यही मानवीय गतिविधियां।
बनाते हैं अपनी आशियाना।
देखते नहीं हैं अपने अन्दर,
बताते हैं दूसरों में खामियां।
——रमेश कुमार सिंह
बढ़िया !
धन्यवाद!!