कविता
सुनो ! सुन रही हो !!
अरे, वैसे ही कुछ घुमड़ रहा अन्दर,
बताऊँ ?
अच्छा सुनो ! अगर मैं नही रहा
और, विस्थापित हो
पहुँच गया, सुदूर तारों तक !!
तो, तो भी क्या?
रहेंगी मेरी कवितायें ! रचनाएं !!
ऐसे किसी साझा संग्रह में
जो न पढ़े जाने के वजह से
घुन लग कर
उदास सोयी पड़ी होगी
किसी पुराने अलमारी के
नीचे वाले शेल्फ के कोने में !!
है न !!
या फिर टकटकी लगा झाँकेगी
किसी दो टके वाले
अखबार या पत्रिका के
क्लासिफाइड वाले पेज पर
जो, जो बिक चुकने के बाद
वाया रद्दी वाला, वीरगति प्राप्त कर
बन चूका होगा “ठोंगा” !
और, फिर नून शो के इंटरवल में
मूंगफली खाते हुए उसपर
भक्क से नजर पड़ेगी तुम्हारी
क्यूंकि उस कविता के
होंगे अंतिम शब्द “सिर्फ तुम्हारा”!!!
मैं कन्फर्म हूँ!
ना मिलूँगा न तुम या कोई ढूंढेगा
क्यूंकि मेरे सारे भाव भरे शब्द
जो उकेरे हैं कागज पर
नहीं उनका कोई साहित्यक मोल
पक्का है, अंतिम परिणति !
रद्दी वाले के गोदाम में
कैंची व लेई के साथ
ठोंगे के रूप विस्तार में!!
मेरे सा, एक तथाकथित कवि का
ये कैसा दर्द है यार !
कोई नही! बी हैप्पी!!
जब भी कोई उड़ता हम्मिंग बर्ड दिख जाये
तो उस फुदकती चिरैया में
ढूंढ़ लेना
मेरे संग्रह के शीर्षक को ही !
इतना तो करोगी न!!
देख लेना !
वो जरुर चह्चहाएगी!
— मुकेश कुमार सिन्हा
thanks
कविता अच्छी है, लेकिन अंग्रेजी शब्दों का अधिकता से प्रयोग खटकता है.