बेजुबान घुटन
आदमी में हलकी सी मुस्कान देखीं मैंने
परायों संग उभरी हुयी पहचान देखीं मैंने |
अपनों से तनिक कटके महफ़िल क्या बैठी
खूब गैरों की मीठी जुबान देखी मैंने ||
मन, मन की चाहत जाने है बेहतर
हर शय हर आँगन में एक ही खबर
चहलकदमी खूब है पुरानी गली में
सजी-संवरी नुक्कड़ पर दुकान देखी मैंने ||
मन से पुरवाईयों के करीब जाके देखा
रुसवाइयों का साया करीब पाके देखा |
नफरतों का घर रास आता भी कैसे
तन्हाइयों की घुटन बेजुबान देखी मैंने ||
सूनी सी रात और मुरझाया सा दिन
हाथों का खिलौना हुआ सपेरे का बीन |
करचली सांप की देख डर गया नौनिहाल
उसी चौपाल पर मदारी की दुकान देखी मैंने ||
आम है परिंदों के घर अण्डों की चोरी
भगत बगुला सुनाता है तालाब को लोरी |
सपना समंदर ही हर छोटी मछली का
सिकुडन किनारों पर खूब पटान देखी मैंने ||
रिश्तों के ढलान में रिश्ता कहीं और से
गम छुपाकर खूब हंसते हैं लोंग गैर से
दर्द पर मरहम, हाथ अपना हों कोई
बेजुबान आँखों में तड़प बेसुमार देखी मैंने ||
— महातम मिश्र
बढ़िया !
सादर धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी…….