दो दिन की ज़िंदगी में…!!
हर किसी को मुहब्बत में करार नहीं मिलता,
दो दिन की ज़िंदगी में प्यार नहीं मिलता…
हो जाती है दिल्लगी अजनबियों से,
पर अपनों से दिलों व्यापार नहीं मिलता…
खुशियों के लिए ताउम्र भटकता रहा “अंसु”,
इश्क-ए-मुश्क का इक बार भी दीदार नहीं मिलता…
कोई कहता है कि लौट जा तू आज ही राही,
काँटों की राह में फूलों का हार नहीं मिलता….
कितने भी गहरे ज़ख्म जमाने ने दे दिए,
सहे हमने फिर भी मेरा यार नहीं मिलता…
वफ़ा करके भी बेवफ़ा का तमगा लग गया मुझ पर,
बेवफ़ा या यार मुझे वफ़ादार नहीं मिलता…
तन्हाइयों की छांव मैं बैठा रहा ताउम्र,
प्यार के कलरव का मुझे इजहार नहीं मिलता…
तू महबूब बन ऐ खुदा! मेरी रूह में समा,
इंसान का तो इंसान से सरोकार नहीं मिलता…!!!
बढ़िया ! आपने ग़ज़ल लिखने की कोशिश की है, पर कुछ तकनीकी कमियाँ रह गयी हैं. जल्दी ही मैं “ग़ज़लों” पर लेख प्रस्तुत करूँगा, जिससे सबको जानकारी मिलेगी.
जी बड़े भाईसाहब… मेरी कोशिशें यूं ही अनवरत जारी रहेगी..
बहुत अच्छी ग़ज़ल
धन्यवाद जी