धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

पापों से बचाव व मुक्ति के लिए अघमर्षण मन्त्रों का पाठ और तदनुसार आचरण आवश्यक

मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व जन्मों के कर्मों का भोग एवं शुभकर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। यह ज्ञान केवल वेदों वा महर्षि दयानन्द के वैदिक विचारों के अध्ययन से ही ज्ञात व प्राप्त होता है। अन्य मतों वा तथाकथित धर्मों में इस विषय का न तो ज्ञान है और न जीवन के अन्तिम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का वर्णन वा उपाय बताये हैं। अतः संसार के मनुष्यों को वेदों की शरण में आकर ही जीवन के पमर लक्ष्य मोक्ष का ज्ञान होने के साथ उसके साधनों व उपायों का ज्ञान भी होता है और जीवन उन्नत व सफल हो सकता है।

जीवन के उद्देश्य की पूर्ति में सबसे बड़ा साधन व उपाय पापों को छोड़ने की विधि व उपाय है। वैदिक सन्ध्या में पापों से बचने के लिए अघमर्षण नाम से तीन ऋग्वेद के मन्त्रों का विनियोग महर्षि दयानन्द जी ने किया है। इनका प्रातः व सायं पाठ करने व अर्थों पर विचार कर तदनुकूल जीवन बनाने से मनुष्य भविष्य के पापों से छूट सकता है। अन्य कोई उपाय पापों से छूटने व शुभ कर्मों में प्रवृत्त होने का नहीं है। पापों को मनुष्य तभी छोड़ेगा जब उसे यह ज्ञात होगा कि मेरे सभी कर्मों का कोई साक्षी है, वह दण्ड देने में सक्षम है, वह साक्षी सत्ता पक्षपात रहित और न्यायकारी है तथा दण्ड से कोई जीवात्मा या प्राणी बच नहीं सकता। ऐसी स्थिति में ही मनुष्य पाप छोड़ सकता है। आजकल जो धन-सम्पन्न लोग घोटाालों सहित नाना प्रकार से पाप कर रहें हैं उन्हें ईश्वर के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं है। वह समझते हैं कि कुछ दान देकर व पूजा पाठ कराकर बुरे कर्मों या पापों से बचा जा सकता है। यह उनका मिथ्या ज्ञान है। मत व धर्मो के द्वारा इस प्रकार का प्रचार भी किया जाता है जिससे मतों व पन्थों को मानने वाले लोग भ्रमित होकर पाप करते हैं। संसार में जो पाप, अन्याय व अत्याचार बढ़ रहें हैं उसका कारण भी सभी लोगों में इन मन्त्रों की शिक्षा व ज्ञान का निश्चयात्मक स्थिति में न होना है। अतः आईये, इन मन्त्रों पर दृष्टिपात कर मन व वाणी से इनका उच्चारण कर लेते हैं। मन्त्र हैं:

ओ३म् ऋतं सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।1।।

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।।

सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।।

                                                                                                 ऋग्वेद 10.190.1-3

इन मन्त्रों के अर्थ इस प्रकार हैं। प्रथम मन्त्रः सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं। जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी भूमि प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब (इस बार, इस कल्प में) भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से यथापूर्वमकल्पयत्’ इस पद का ग्रहण किया है।

द्वितीय मन्त्रः उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि ईश्वर ने अपने अनन्त सामथ्र्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत का कारण (सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति) प्रकाशित होता है और सब जगत् के बनाने की सामग्री (प्रकृति) ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को प्रकाशित किया, जैसा कि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जिसके नाम व्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान और प्रकृति हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी कार्यरूप होके पूर्वकल्प के समान उत्पन्न हुआ है। उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि –जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।” तदन्तर उसी सामथ्र्य से पृथिवी और मेघ मण्डल अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र हैं, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।

तृतीय मन्त्रः उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहूर्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है। और ईश्वर सबको उत्पन्न करके, सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है।

ऐसा (उपर्युक्त मन्त्रों व उनके अर्थों को सत्य वा) निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्यों को उचित है कि मन, वचन और कर्म से पाप कर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है, अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पाप कर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवे।

इन मन्त्रों का पद्यानुवाद भी पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है।

ऋत सत्य से ही तूने संसार को बनाया। तेरा ही दिव्य कौशल है सिन्धु ने लखाया।।

पहले के कल्पजैसे रविचन्द्र को सजाया। दिनरात पक्ष संवत् में काल को सजाया।।

 द्यौअन्तरिक्षधरणी सब नेम पर टिकाये। तू रम रहा सभी में तुझमें सभी समाये।।

इन मन्त्रों के अर्थों के आधार पर स्वामी जगदीश्वरानन्द जी ने आत्म-निवेदन नाम से निम्न प्रार्थना को रचा है। वह लिखते हैं कि ‘‘हे प्रभो ! आपने अपने ऋतरूप सत् ज्ञान के द्वारा सत्रूप मूल प्रकृति को अपने अनन्त सामर्थ्य से यथायोग्य संयुक्त करके इस विश्व ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया है। इससे पूर्व यह रात्रिरूप प्रलय को प्राप्त था। उस प्रलय से पहले आपने इसे प्रत्येक द्रव्य के परमाणुरूप तरल महासमुद्रजैसी अवस्था में बनाया। उसके बाद सौरमण्डलों के केन्द्र तथा दिनरात आदि समय के आधारभूत सूर्यादि के प्रत्येक छोटेबड़े पदार्थ को आपने अपनी अनन्त सामर्थ्य, सर्वशक्तिमत्ता, सर्वव्यापकता एवं सर्वाधारस्वरूप से अपने वश में करके व्यवस्थित किया। परमाणु से लेकर विशालकार्य ग्रहउपग्रह, पृथिवी, सूर्य, चन्द्र, तारे, नक्षत्रादि कोई भी तो आपकी अटल व्यवस्था का उलंघ्घन नहीं कर रहा है। हे जगत्पिता ! आपकी यह व्यवस्था अटल है, अपरिवर्तनीय है, शाश्वत है। आपने जैसी रचना अब वर्तमान सृष्टि की की है वैसी ही पूर्व सृष्टि की की थी तथा आगामी सृष्टि की रचना सम्पूर्ण व्यवस्था भी वैसी ही होगी। हे मेरे स्वामिन् ! आप कृपा कर हमें वह शक्ति सामर्थ्य दो कि हम आपकी इस सम्पूर्ण व्यवस्था को भलीभांति जानकर, आपके बनाये सृष्टिनियमों का अनुकरण करते हुए, आपकी वेदाज्ञा का निष्ठापूर्वक पालन करें।”

इस लेख में प्रस्तुत अघमर्षण मन्त्र प्रातः व सायं की जाने वाली सन्ध्या के मन्त्रों में विद्यमान हैं तथापि हमने इनके महत्व के कारण इन्हें लेख रूप में प्रस्तुत किया है जिससे इस पर समुचित ध्यान दिया जा सके। लेख में पापों से जुड़ी सभी बातें आ गईं हैं, अतः इनके विस्तार में जाने की यहां आवश्यकता अनुभव नहीं होती। इतना ही जानना आवश्यक है कि जीवात्मा ईश्वर के अधीन है। ईश्वर हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है। हम कोई अच्छा या बुरा कर्म दिन के प्रकाश में या रात्रि के अन्धकार में करें, ईश्वर के सर्वव्यापक होने के कारण उसका ज्ञान ईश्वर को रहता है। जीवात्मा को जन्म-जन्मान्तर में किए हुए अपने शुभ व अशुभ कर्मो के फल अवश्यमेव भोगने होते हैं। शुभ कर्मों के फल अलग से भोगने होंगे और अशुभ कर्मों के फल अलग से भोगने होते हैं। यह आपस में घुलते मिलते नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम कुछ शुभ कर्म करें और कुछ या थोड़े से अशुभ कर्म करें और उन सबका परस्पर समायोजन हो जाये। ऐसा संसार की व्यवस्था में होना तो सम्भव हो सकता है परन्तु ईश्वर की न्याय व्यवस्था में ऐसा नहीं होता। हमें प्रत्येक अशुभ कर्मों का फल अलग से अवश्यमेव भोगना ही पड़ेगा, इस निश्चयात्मक ज्ञान को जानकर कभी कोई अशुभ कर्म किसी को भी नहीं करना चाहिये जिससे कि भविष्य व परजन्मों में हमें दुःखमय जीवन व्यतीत करना पड़े, इसी उद्देश्य से सन्ध्या में अघमर्षण मन्त्रों का विनियोग महर्षि दयानन्द ने किया जिनका ज्ञान परमात्मा ने वेदों के माध्यम से दिया हुआ था। आईये, वेदाध्ययन और सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन का व्रत लें जिससे कि हमारा जीवन कुन्दन बनता है। इसके साथ ही अशुभ कर्म वा पाप न करने का भी संकल्प धारण करें। इत्योम्।

मनमोहन कुमार आर्य

 

4 thoughts on “पापों से बचाव व मुक्ति के लिए अघमर्षण मन्त्रों का पाठ और तदनुसार आचरण आवश्यक

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब !

    • Man Mohan Kumar Arya

      धन्यवाद जी।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा . आप के लेख से एक बात गिआत हुई कि जब वेदों की रचना हुई थी तब हमारा भारत हर क्षेत्र में कितना आगे था . दुसरे अगर हर प्राणी यह सोच कर कोई भी काम करे कि कोई उस को देख रहा है तो संसार अच्छा हो सकता है . जैसे कोई चोर चोरी करते समय चौकन्ना रहता है कि कोई उसे पकड न ले , उसी तरह हर कोई यह सोच कर काम करे कि कोई उसे देख रहा है तो १००% नहीं तो ८०% तो सुधार आ ही जाएगा . बस बात तो अपनी अपनी सोच की ही है.

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद श्रद्धेय श्री गुरमेल सिंह जी। आपने लेख को भली भांति समझा है। आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण हैं। यह सच है कि ईश्वर सर्वव्यापक है और वह हर क्षण सभी प्राणियों और उनके कर्मों सहित उनके मन की सभी बातों को जानता व देखता भी है और सभी प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार जन्म जन्मान्तर में उनके फल देता है जिसमे सुख वा दुःख तथा पुरुष्कार एवं दण्ड दोनों होते हैं है। यदि आप इस लेख से पूर्व के भी दो तीन लेख जो कल या परसों लोड किये हैं, देख सकें तो उनसे बहुत कुछ जाना जा सकता है। मुझे इन लेखो को लिख कर आत्मसंतोष मिला है।

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