प्रकृति
सकल जग का ये सकल खेल
मानव शेर तो प्रकृति सवा शेर
छोटा वार मानव बार-बार करता
उसके ऊपर प्रकृति का एक ही वार भारी पड़ता
झूठी कहानी है यह कि
पायोधि पर पार अभ्र में
स्वर्ग लोक है कहीं पर
और कहीं पर अधः लोक
अगर कहीं पर यह है तो
वह यहीं पर है, यहीं पर
प्रकृति का वार जो कभी
कहीं कहीं पर था आता
वह व्याप्त हो गया अब तो पल-छिन
कभी कभी का वार
विकराल रूप में है आता
साथ ही इसके अब चल रहा
निरन्तर प्रकृति का प्रहार
इस पल-छिन के प्रहार से
मानव का जीवन संकट में
मानव के साथ यहां पर
पृथ्वी भी पड़ी प्रलय में
मिटने वाला यहां पर
इसका महा सत्व है
जागो रे मानव!
थोड़ी भी नहीं वक्त है!
— प्रदीप कुमार तिवारी
बढ़िया कविता !
dhanyawad