खिलखिलाती रही
कतरा कतरा बन
जि़न्दगी गिरती रही
समेट उन्हें, मै
यादों में सहेजती रही
अनमना मन मुझसे
क्या मांगे,पता नहीं
पर हर घड़ी धूप सी
मैं ढलती रही
रात, उदासी की चादर
ओढा़ने को आतुर बहुत
पर मैं तो
चाँद में ही अपनी
खुशियाँ ढूंढती रही
और चाँदनी सी
खिलखिलाती रही
बहुत शानदार कविता !