कविता

चाँद और तारिका

प्रायः रात्रि में अर्द्ध चंद्र के पास एक तारा दिखाई देता है। इस गीत में उस चंद्रमा को एक प्रेमी और तारे को ‘तारिका’ कह कर उनके बीच प्रेम की वार्तालाप दर्शायी गई है। कविता का सार यह है कि प्रेमी कितने भी दूर क्यों ना हो जाएँ उनके बीच की भावना दूरी के कारण नष्ट नहीं होती शाश्वत प्रेम बढ़ता ही जाता है।

moon-and-starरात ढलती रही दीप जलते रहे
चाँद और तारिका साथ चलते रहे
दीप जो थे दीवाली के बुझने लगे
दीप यादों के पर दिल में जलत रहे।

बात फिर चाँद ने तारिका से कही-
अब किसी मोड़ पर हम मिलेंगे नहीं
टूट कर तुम धरा पर बिखर जाओगी
हर जनम में रहूगा खड़ा मैं यहीं।

तारिका ने कहा-पर ना हारूँगी मैं
बन के तुमको चकोरी निहारुँगी मैं
प्यार होगा ना तुम पर कभी मेरा कम
तुम को पल-पल ज़मीं से पुकारुँगी मैं।

तोड़ कर प्रीत की रीत ना जाऊँगा
नेह के रूप में ओस बरसाऊँगा
करने सिंगार धरती पे आ ना सकूँ
अपनी किरणों के मैं हार पहनाऊँगा।

प्यार पा कर तुम्हारा सँवर जाऊँगी
धूल चरणों की पाकर मैं तर जाऊँगी
प्यार धरती-गगन पर मिलेगा मुझे
भाग ऐस भला मैं कहाँ पाऊँगी।

चाँद और तारिका की कहानी नहीं
प्रीत की रीत जिसने ये जानी नहीं
तन से होते हैं पर प्रीत मिटती नहीं
बात होगी मगर ये पुरानी नहीं।

मन को मंदिर के जैसे बना कर रखो
अपने दिलबर को उसमें बसाकर रखो
वंदना उस विधाता की हो जाएगी
दीप बस प्यार का इक जला कर रखो।

One thought on “चाँद और तारिका

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मधुर कविता !

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