गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

girlमेरे महबूब तू जख्मो का तलबगार ना बन ।
इन आसुओं के छलकने का गुनहगार ना बन ।।

था इन्तजार मुझे तेरी उन दुआओं का ।
मेरे जमीर के हिस्से का खरीदार ना बन ।।

लूट गया मैं हूँ तेरे हुश्न के मैखाने में ।
मेरे साकी मेरे नीलाम का अखबार ना बन।।

शहर ए दीवार नाम चस्पा बेवफाई का।
मेरी हस्ती को मिटाने का इस्तिहार ना बन ।।

मैं खिजाओं के लिए जिंदगी को लाया था ।
इस मुकद्दर के सवरने का तू बहार ना बन ।।

मेरी तन्हाइयों को मेरे पास रहने दो ।
फिर उम्मीदों के लिए दिल का बेक़रार न बन ।।

गुनाह कर गयी कबूल खामोशी तेरी ।
सब गवाहों के बदलने का तू सरकार ना बन ।।

मेरे खतों से पढ़ गयी वो मेरे घर का पता ।
मेरे रकीब मइयतों का मदतगार ना बन ।।

— नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत शानदार ग़ज़ल !

Comments are closed.