ग़ज़ल
मेरे महबूब तू जख्मो का तलबगार ना बन ।
इन आसुओं के छलकने का गुनहगार ना बन ।।
था इन्तजार मुझे तेरी उन दुआओं का ।
मेरे जमीर के हिस्से का खरीदार ना बन ।।
लूट गया मैं हूँ तेरे हुश्न के मैखाने में ।
मेरे साकी मेरे नीलाम का अखबार ना बन।।
शहर ए दीवार नाम चस्पा बेवफाई का।
मेरी हस्ती को मिटाने का इस्तिहार ना बन ।।
मैं खिजाओं के लिए जिंदगी को लाया था ।
इस मुकद्दर के सवरने का तू बहार ना बन ।।
मेरी तन्हाइयों को मेरे पास रहने दो ।
फिर उम्मीदों के लिए दिल का बेक़रार न बन ।।
गुनाह कर गयी कबूल खामोशी तेरी ।
सब गवाहों के बदलने का तू सरकार ना बन ।।
मेरे खतों से पढ़ गयी वो मेरे घर का पता ।
मेरे रकीब मइयतों का मदतगार ना बन ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
बहुत शानदार ग़ज़ल !