आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 49)
वाराणसी में मेरा संघ से सम्पर्क प्रारम्भ में ही हो गया था। वास्तव में मैं सबसे पहले गोदौलिया के संघ कार्यालय में ही रहा था। जब नदेसर में मकान ले लिया, तो वहाँ के स्वयंसेवकों के सम्पर्क में आया। नदेसर क्षेत्र के अधिकांश स्वयंसेवक निम्नवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय हैं। उनमें भी दो-चार ही सक्रिय थे, बाकी कभी-कभी दर्शन दे जाते थे। वहाँ एक स्वयंसेवक जिनका मैं विशेष रूप से उल्लेख करना चाहता हूँ वे थे श्री सोमेश्वर प्रसाद जी शर्मा, जो सम्पूर्ण नदेसर क्षेत्र में ‘सोमारू’ के नाम से प्रसिद्ध थे। वे लगभग 65-66 वर्ष के युवक थे। पहले पहलवानी भी किया करते थे। आजीविका के लिए पेंटिंग का कार्य करते थे। अपना छोटा सा पुराना मकान था। उसमें एक-दो किरायेदार थे। उनसे थोड़ी बहुत आय हो जाती थी। पुत्र कोई था नहीं। दोनों पुत्रियों का विवाह हो चुका था। अतः उनका और उनकी पत्नीजी का खर्च आराम से चल जाता था। उनकी आवश्यकताएँ बहुत सीमित थीं, अतः आजीविका की चिन्ता नहीं करते थे और अपना अधिकांश समय संघकार्य में ही लगाते थे। अपनी पुरानी सी साइकिल पर हर जगह हर कार्यक्रम में सबसे पहले पहुँच जाते थे। वास्तव में वे नदेसर में संघकार्य के पर्याय थे।
सोमेश्वर जी मुझे बहुत प्यार करते थे। मेरा फ्लैट तीसरी मंजिल पर था। दमा की शिकायत होने के बाद भी वे सारी सीढ़ियाँ चढ़ जाते थे। वे शाखा आने में इतने नियमित थे कि जिस दिन उनका देहान्त हुआ, उस दिन भी शाखा आये थे। उनका देहान्त दमा के कारण ही हुआ था। जब हमारे मम्मी-पिताजी वाराणसी में होते थे, वे प्रायः हमारे घर आया करते थे। एक बार मैंने मम्मी के कहने पर उनको गीता प्रेस की मोटे अक्षरों वाली रामचरित मानस की एक प्रति भेंट में दे दी थी। अपने घर पर खाली समय में वे उसको बाँचा करते थे।
सोमेश्वर जी के देहान्त से नदेसर में संघकार्य को बहुत धक्का लगा। अधिकांश स्वयंसेवकों से वे ही सम्पर्क किया करते थे और उन्हीं को सबका नाम-पता मालूम था। फिर भी बहुतों से मेरा परिचय हो चुका था और उनके पते भी मेरी डायरी में दर्ज थे। अतः किसी तरह फिर से संघकार्य खड़ा किया। इसमें मुझे गोपाल जी पुरोहित का बहुत सहयोग मिला, जिनके बारे में पीछे लिख चुका हूँ।
गोपाल जी निष्ठावान् स्वयंसेवक हैं। उनकी कार्यक्षमता देखकर ही उन्हें नगर कार्यवाह का दायित्व सोंपा गया था, जिसे उन्होंने भरसक निभाया। हम दोनों की सक्रियता से हमारे नगर में संघकार्य सुचारु रूप से चलने लगा था। बाद में गोपाल जी अपने गृहनगर किशनगढ़ (अजमेर के निकट) चले गये और आजकल वहीं पर हैं।
वाराणसी में मैं अपने नगर के क्षेत्र में ही नहीं पूरे महानगर में सक्रिय रहता था। जब भी कहीं महानगर का कोई कार्यक्रम होता था, तो मैं अवश्य जाता था। इससे सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं से मेरा अच्छा परिचय हो गया था। वे सभी मुझे बहुत प्यार और आदर देते थे। उनमें से कई बंधुओं के नाम मुझे अभी भी याद हैं- सर्वश्री कपिल देवजी, किशोरीलाल जी, बहादुरजी, हीरालालजी, आचार्य रामकृष्ण जी, डा. विज, नरेन्द्र जी द्विवेदी, त्रिभुवन जी आदि। इनके अतिरिक्त अपनी शाखा के सर्वश्री जोखन गिरि जी (गार्ड साहब), महेन्द्र जी, दिनेश जी, रवि जी, अरुण पाठक जी, अशोक जी केसरी, जायसवाल जी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन सबके बारे में विस्तार से लिखना यहाँ सम्भव नहीं है, इसलिए उनका नामोल्लेख करके ही क्षमा माँग लेता हूँ।
सन् 1992 में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पूरे उफान पर था, हालांकि यह आन्दोलन लगभग 8 वर्षों से चल रहा था। सन् 1990 में उ.प्र. में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी, जिसने निहत्थे आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ चलायी थीं और सैकड़ों रामभक्तों के प्राण ले लिये थे। मुलायम सिंह ने यह कार्य केवल मुसलमानों को खुश करने के लिए किया था। परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि आगे चलकर उनको इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अगले ही चुनावों में मुलायम सिंह बुरी तरह हार गये और कल्याण सिंह की सरकार बनी। इसके साथ ही श्रीराम मन्दिर आन्दोलन उफान पर आ गया था और आशा की जा रही थी कि सरकार अविवादित भूमि विश्व हिन्दू परिषद को सोंपकर कारसेवकों को संतुष्ट कर देगी और मन्दिर का निर्माण धीरे-धीरे होता रहेगा।
लेकिन उस समय केन्द्र में नरसिंहराव की सरकार थी, जो एक ही धूर्त थी। वह समस्या हल करना ही नहीं चाहती थी और बार-बार बहाने बनाकर टालती थी। बाबरी ढाँचा टूटने से एक दिन पहले अर्थात् 5 दिसम्बर सन् 1992 की रात्रि को विश्व हिन्दू परिषद ने घरों पर मशाल जलाने और थाली पीटने का कार्यक्रम घोषित किया। उस रात हमारी शाखा के तीन-चार स्वयंसेवक और बच्चे अनन्ता कालोनी नदेसर में हमारे फ्लैट की छत पर एकत्र हो गये। ठीक 9 बजे रात को हमने मशाल जलाकर थाली-कनस्तर पीटना और ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाना चालू किया। देखते-ही-देखते पूरे नदेसर क्षेत्र में 20-25 जगहों पर मशालें जल उठीं और थाली-कनस्तर पीटे जाने लगे। लगभग 10 मिनट तक यह शोरगुल होता रहा। नदेसर क्षेत्र में लगभग आधी आबादी मुसलमानों की है। हिन्दुओं की यह अभूतपूर्व एकता देखकर उनको साँप सूँघ गया होगा।
उन दिनों देश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में रामभक्त कारसेवा करने अयोध्या आ रहे थे। उनमें से बहुत से लोग वाराणसी होकर जा रहे थे। उनके लिए भोजन की व्यवस्था करना हमारा दायित्व था। हमने अपनी इस जिम्मेदारी को भरपूर निभाया। मैंने स्वयं अपनी कालोनी के दर्जनों घरों से सैकड़ों की संख्या में भोजन पैकेट एकत्र करके रेलवे स्टेशन के पास इंगलिशिया लाइन स्थित भारतीय शिक्षा मंदिर में पहुँचाये थे, जो उस समय रामभक्तों का अस्थायी निवास बना हुआ था।
अगले दिन अर्थात् 6 दिसम्बर को बाबरी ढाँचा टूटने का समाचार मिलने पर हमें हार्दिक प्रसन्नता और सन्तोष हुआ। उस ढाँचे को जाना ही था। हालांकि वह जिस तरह टूटा उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। वैसे कुछ वर्ष पूर्व देवरहा बाबा ने भविष्यवाणी की थी कि एक दिन हिन्दुओं की भीड़ आकर इस ढाँचे को तोड़ जायेगी और पुलिस खड़ी देखती रहेगी। तब कोई यह नहीं समझ पाया था कि ऐसा कैसे संभव होगा, फिर भी वैसा ही हो गया। इसे विधि का विधान ही कहा जाएगा- ‘तुलसी जस भवितव्यता, तैसेइ मिले सहाइ’।
बाबरी ढाँचा गिरने के बाद पूरे देश में बहुत तनाव हो गया था। विशेष रूप से जिन शहरों और गाँवों में मुसलमानों की आबादी अधिक थी, उनमें तो साम्प्रदायिक तनाव चरम सीमा पर पहुँच गया था। वाराणसी भी इनमें अपवाद नहीं थी। उसमें भी हमारे मौहल्ले नदेसर में मुसलमानों की संख्या बहुत थी। अगर वहाँ कोई वारदात हो जाती, तो कोई आश्चर्य न होता। लेकिन एक रात पहले हमारे द्वारा छतों पर मशालें जलाने और नारे लगाने से जिस एकता का प्रदर्शन हुआ था, उससे किसी को कोई गड़बड़ करने की हिम्मत नहीं हुई। वैसे वाराणसी के अधिकांश भागों में कर्फ्यू लगा हुआ था। सारे बाजार और कार्यालय लगभग 15 दिन तक बन्द रहे। इन दिनों लोग घर पर ही रहते थे और गलियों में बच्चों के साथ क्रिकेट आदि खेलकर समय पास किया करते थे। हमारी जुड़वाँ कालोनियों अनन्ता और इमलाक में दिनभर धूमधाम रहा करती थी। लोग मजाक में कहते थे- ‘काम न धाम, जय श्री राम !’
(जारी…)
आपके लेख ने रामजन्म भूमि पर अनाचार पूर्वक बनाये गए ढांचे व उसके धरासाई होने की याद ताजा कर दी। हिन्दू समाज की कुछ कमियों के कारण यह काम अधूरा है। यदि हिन्दू समाज वेदो के संगठन सूक्त के चार मन्त्रों को अपना ले तो यह काम अविलम्ब हो सकता है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।
सही कहा भाई साहब ! हिन्दुओं में एकता की ही तो कमी है. अगर एकता होती तो न तो देश के टुकड़े होते, न लाखों लोगों की हत्या होती.
विजय भाई , यह कड़ी भी अच्छी लगी . मेरी तो यही सोच है कि मुस्ल्मानो को खुद आगे आ कर कहना चाहिए था कि आप बाबरी मस्जिद की जगह मंदिर बनाओ और वोह और भी अपना सहयोग देंगे . इस से हिदू सिख उन को कई मस्जिदें बना देते लेकिन दुःख की बात है कि यह कट्टर मुलाह ऐसा होने नहीं देते . सब से बुरी बात है सिआसत जो सत्ता में काबज़ रहने के लिए कुछ भी करते हैं .
प्रणाम भाई साहब. आपका कहना सच है. अगर मुसलमान अपने आप राम जन्म भूमि हिन्दुओं को सौंप देते तो देश में एकता का बहुत अच्छा वातावरण पैदा होता और हिन्दू इस अहसान का बदला हज़ार तरह से उतार देते. लेकिन मुसलमानों में इतनी दूरदर्शिता नहीं है. मैंने अनेक बार समाचार पत्रों में यही बात लिखी थी जो आपने लिखी है. लेकिन धूर्त नेताओं पर कोई असर नहीं हुआ.