सिक्के के दो पहलू
रतलाम जिले के एक हेलमेट पहने दूल्हे की तस्वीर कल से इंटरनेट पर प्रसारित हो रही है। दूल्हा दलित समुदाय से सम्बंधित है एवं उसने हेलमेट इसलिए पहना है क्यूंकि उस गांव के सवर्ण लोगों द्वारा दलित समाज से सम्बंधित व्यक्ति द्वारा घोड़ी की सवारी करने पर आपत्ति है। दलित भाई इसे सवर्णों द्वारा दलितों पर अत्याचार के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। इस घटना को विभिन्न दलित संस्थाओं द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं से लेकर इंटरनेट पर व्यापक रूप से यह दिखाने के लिए प्रचारित किया जा रहा हैं कि सम्पूर्ण स्वर्ण हिन्दू समाज अत्याचारी हैं। निश्चित रूप से यह अत्याचार है और हम इसकी निंदा करते है मगर इस घटना का सहारा लेकर जो स्वर्ण और दलितों के मध्य वैमनस्य पैदा किया जा रहा हैं वह एक देश घातक सोची समझी साजिश हैं। ध्यान से देखने पर मालूम चलता हैं कि दलित मुखपत्रों के चलाने वाले अथवा दिशा निर्देश देने वाले मुख्य रूप से ईसाई अथवा मुस्लिम होते हैं जो समाज सेवा कि आड़ में विदेशी धन के बल पर हिन्दू समाज को तोड़ने का कार्य करते हैं। आज के समय में 90% से अधिक हिन्दू समाज जातिवाद को नहीं मानता। केवल 10% अज्ञानता के चलते जातिवाद को मानते हैं जिसका उनर्मूलन आवश्यक है। मगर उन 10% के कुकृत्य को बाकि 90% पर थोपना सरासर गलत हैं। इस घटना के विरोध से दूरियाँ घटने के स्थान पर बढ़ेगी इसमें कोई दो राय नहीं है। तो इसका समाधान क्या है? इसका समाधान है ऐसी घटनाओं को जोर शोर से प्रचारित करना जिसमें स्वर्ण और दलित के मध्य दूरियां कम करने का प्रयास किया गया था और उसमें आंशिक ही सही मगर सफलता अवश्य मिली। आप बुराई के स्थान पर अच्छाई वाले दृष्टान्तों को प्रचारित कर भी सामाजिक सन्देश दे सकते हैं जिससे सकारात्मक माहौल बने और वैमनस्य न बढ़े। इस लेख के माध्यम से हम कुछ घटनाओं को यहाँ लिखते है –
सोमनाथ जी की माता का अमर बलिदान
आर्यसमाज के इतिहास में अनेक प्रेरणादायक संस्मरण हैं जो अमर गाथा के रूप में सदा सदा के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। एक ऐसी ही गाथा रोपड़ के लाला सोमनाथ जी की हैं। आप रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यूँ तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। आपके शुद्धि करने पर रोपड़ के पौराणिक समाज ने आर्यसमाज के सभी परिवारों का बहिष्कार कर दिया एवं रोपड़ के सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आखिर में नहर के गंदे पानी को पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माता जी भी थी। उन्हें आन्त्रज्वर (Typhoid) हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझोता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी जी आपको समझाया की एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित हैं फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा। इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई है। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे।
उधर माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ ऐसा भड़काया की आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ लेकर से जालंधर लेकर जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी दी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा “हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेड़खानी के आगाज़ के लिए धन्यवाद अदा करते हैं की उन्होंने हमें विधिवत अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में हमें निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य है। ”
3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी” का फैसला भी आ गया। सीताराम अपराधी ने बड़े जज से माफ़ी मांगी। उसने अदालत में माफीनामा पेश किया। “मुझ सीताराम ने लाला सोमनाथ प्रधान आर्यसमाज रोपड़ के खिलाफ छपवाई थी, मुझे ऐसा अफ़सोस से लिखना है की इसमें आर्यों की तोहीन के खिलाफ बातें दर्ज हो गई थी। जिससे उनको सख्त नुकसान पहुंचा। इस कारण मैं बड़े अदब (शिष्टाचार) से मांफी मांगता हूँ। मैं लाला साहब के सुशील हालत के लिहाज से ऐसी ही इज्जत करता हूँ जैसा की इस चिट्ठी के छपवाने से पूर्व करता था। मैं उन्हें बरादारी से ख़ारिज नहीं समझता, उनके अधिकार साधारण व्यक्तियों सहित वैसे ही समझता हूँ जोकि पहिले थे। मुझे आर्य लोगों से कोई झगड़ा नहीं हैं। साधारण लोगों को सूचना के वास्ते यह माफीनामा अख़बार सत्यधर्म प्रचारक और अख़बार पंजाब समाचार लाहौर में और जैन धर्म शरादक लाहौर में प्रकाशित कराता हूँ। ”
इस प्रकार से अनेक संकट सहते हुए आर्यों ने दलितोद्धार एवं शुद्धि के कार्य को किया था। मौखिक उपदेश देने में और जमीनी स्तर पर पुरुषार्थ करने में कितना अंतर होता हैं इसका यह यथार्थ उदहारण हैं। सोमनाथ जी की माता जी का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं। सबसे प्रेरणादायक तथ्य यह हैं की किसी स्वर्ण ने अछूतों के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हो ऐसे उदहारण केवल आर्यसमाज के इतिहास में ही मिलते है।
नारायण स्वामी जी और दलितोद्धार
आर्यसमाज के महान नेता महात्मा नारायण स्वामी जी का जीवन आज हमारे लिए कदम कदम पर आर्य बनने की प्रेरणा दे रहा हैं। स्वामी जी की कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। उनके जीवन के अनेक प्रसंगों में से दलितोद्धार से सम्बंधित दो प्रसंगों का पाठकों के लाभार्थ वर्णन करना चाहता हूँ। नारायण स्वामी जी तब मुरादाबाद आर्यसमाज के प्रमुख कर्णधार थे। आर्यसमाज में ईसाई एवं मुस्लमान भाइयों की अनेक शुद्धियाँ उनके प्रयासों से हुई थी जिसके कारण मुरादाबाद का आर्यसमाज प्रसिद्द हो गया। मंसूरी से डॉ हुकुम सिंह एक ईसाई व्यक्ति की शुद्धि के लिए उसे मुरादाबाद लाये। उनका पूर्व नाम श्री राम था व वह पहले सारस्वत ब्राह्मण थे। ईसाईयों द्वारा बहला-फुसला कर किसी प्रकार से ईसाई बना लिए गए थे। आपकी शुद्धि करना हिन्दू समाज से पंगा लेने के समान था। मामला नारायण स्वामी जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ। अपने अंतरंग में निर्णय लिया की नाम मात्र की शुद्धि का कोई लाभ नहीं हैं। शुद्धि करके उसके हाथ से पानी पीने का नम्र प्रस्ताव रखा गया जो स्वीकृत हो गया। यह खबर पूरे मुरादाबाद में आग के समान फैल गई। शुद्धि वाले दिन अनेक लोग देखने के लिए जमा हो गए। शुद्धि कार्यकर्म सम्पन्न हुआ एवं शुद्ध हुए व्यक्ति के हाथों से आर्यों द्वारा जल ग्रहण किया गया। अब घोर विरोध के दिन आरम्भ हो गए। “निकालो इन आर्यों को जात से”, “कोई कहार इनको पानी न दे”, “कोई मेहतर इनके घर की सफाई न करे”, “कोई इन्हें कुँए से पानी न भरने दे” ऐसे ऐसे अपशब्दों से आर्यों का सम्मान किया जाने लगा। बात कलेक्टर महोदय तक पहुँच गई। उन्होंने मुंशी जी को बुलाकर उनसे परामर्श किया। मुंशी जी ने सब सत्य बयान कर दिया तो कलेक्टर महोदय ने कहा की आर्य लोग इसकी शिकायत क्यों नहीं करते। मुंशी जी ने उत्तर दिया। “हम लोग स्वामी दयानंद के अनुयायी हैं। एक बार ऋषि को किसी ने विष दिया था। कोतवाल उसे पकड़ लाया। ऋषि ने कहा इसे छोड़ दीजिये। मैं लोगों को कैद करने नहीं अपितु कैद से मुक्त कराने आया हूँ। ये लोग मूर्खतावश आर्यों का विरोध करते हैं। इन्हें ज्ञान हो जायेगा तो स्वयं छोड़ देंगे। ” अंत में कोलाहल शांत हो गया और आर्य अपने मिशन में सफल रहे।
कुआँ नापाक हो गया
एक अन्य प्रेरणादायक घटना नारायण स्वामी जी के वृन्दावन गुरुकुल प्रवास से सम्बंधित हैं। गुरुकुल की भूमि में गुरुकुल का स्वत्व में एक कुआँ था। उस काल में एक ऐसी प्रथा थी कुओं से मुस्लमान भिश्ती तो पानी भर सकते थे मगर चमारों को पानी भरने की मनाही थी। मुस्लमान भिश्ती चाहते तो पानी चमारों को दे सकते थे। कुल मिलाकर चमारों को पानी मुस्लमान भिश्तीयों की कृपा से मिलता था। जब नारायण स्वामी जी ने यह अत्याचार देखा तो उन्होंने चमारों को स्वयं से पानी भरने के लिए प्रेरित किया। चमारों ने स्वयं से पानी भरना आरम्भ किया तो उससे कोलाहल मच गया। मुस्लमान आकर स्वामी जी से बोले की कुआँ नापाक हो गया हैं क्यूंकि जिस प्रकार बहुत से हिन्दू हम को कुँए से पानी नहीं भरने देते उसी प्रकार हम भी इन अछूतों को कुँए पर चढ़ने नहीं देंगे। स्वामी जी ने शांति से उत्तर दिया “कुआँ हमारा हैं। हम किसी से घृणा नहीं करते। हमारे लिए तुम सब एक हो। हम किसी मुस्लमान को अपने कुँए से नहीं रोकते। तुम हमारे सभी कुओं से पानी भर सकते हो। जैसे हम तुमसे घृणा नहीं कर्ट, हम चाहते हैं की तुम भी चमारों से घृणा न करो।” इस प्रकार से एक अनुचित प्रथा का अंत हो गया। आर्यसमाज के इतिहास में अनेक मूल्यवान घटनाएँ हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी।
(साभार-श्री नारायण स्वामी जी महाराज का जीवन चरित्र। लेखक पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय, विश्वप्रकाश जी। )
मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नहीं है
अपनी खेती कि देखभाल करके घर लौट रहे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और कर्णधार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को रास्ते में सहसा किसी के चिल्लाने की ध्वनि सुनाई दी। शीघ्र जाकर देखा कि एक स्त्री को साँप ने काट लिया है। त्वारित्बुद्धि आचार्य को लगा कि यहाँ ऐसा कोई साधन नही है जिससे सर्प-विष को फैलने से रोका जाये। इसलिये उन्होंने फौरन यज्ञोपवीत (जनेऊ) तोड़ कर सर्प-दंश के ऊपरी हिस्से में मजबूती से बांध दिया। फिर सर्प-दंश को चाकू से चीरकर विषाक्त रक्त को बलात् बहार निकाल दिया। उस स्त्री की प्राण-रक्षा हो गयी। इस बीच गाँव के बहुत से लोग इकट्ठे हो गये। वो स्त्री अछूत थी। इसलिये गाँव के पण्डितो ने नाराज़गी प्रकट करते हुए कहा “जनेऊ जैसी पवित्र वस्तु का इस्तेमाल इस औरत के लिये करके आपने धर्म कि लूटिया डुबो दी। हाय ! गज़ब कर दिया। ” विवेकी आचार्य ने कहा ‘अब तक नही मालूम तो अब से जान लीजिये, मनुष्य और मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नही होता| मैंने अपनी ओर से सबसे बड़े धर्म का पालन किया है।
रिश्तों से बड़ा दलितोद्धार
प्रोफेसर शेर सिंह पूर्व केंद्रीय मंत्री भारत सरकार के पिता अपने क्षेत्र के प्रसिद्द जागीरदार थे। दलितों से छुआछूत का भेदभाव मिटाने के लिए उन्होंने अपने खेतों में बने कुएँ दलितों के लिए पानी भरने हेतु स्वीकृत कर दिए। प्रोफेसर शेर सिंह उस समय विद्यालय में पड़ते थे मगर उस काल की प्रथा अनुसार उनका विवाह सुनिश्चित हो चूका था। जब समधी पक्ष ने शेर सिंह जी के पिता के निर्णय को सुना तो उन्होंने सन्देश भेजा की या तो दलितों के लिए कुँए से पानी भरने पर पाबन्दी लगा दे अन्यथा इस रिश्ते को समाप्त समझे। शेर सिंह जी के पिता ने रिश्तों को दलितोद्धार के सामने तुच्छ समझा और रिश्ता तोड़ना मंजूर किया मगर दलितों के साथ न्याय किया। जब आर्यसमाज के मूर्धन्य विद्वान पंडित बुद्धदेव जी वेदालंकार को यह जानकारी मिली तो वे शेर सिंह जी के पिता से मिलने गए एवं उन्हें आश्वासन दिया कि उनकी निगाह में एक आर्य कन्या है जिनसे शेर सिंह जी का विवाह होगा। कालांतर में उन्होंने अपनी कन्या का विवाह जाति-बंधन तोड़कर शेर सिंह जी के साथ किया। शेर सिंह जी जाट बिरादरी से थे जबकि बुद्धदेव जी की ब्राह्मण समाज से सम्बंधित थे।
इस प्रकार के अनेक प्रसंग महाशय रामचन्द्र जी जम्मू, वीर मेघराज जी इन्दोर, लाला लाजपत राय जी गढ़वाल, लाला गंगाराम जी स्यालकोट, पंडित देवप्रकाश जी मध्य प्रदेश, मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी बरोडा, वीर सावरकर जी रत्नागिरी, स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली, पंडित रामचन्द्र देहलवी दिल्ली आदि के जीवन में मिलते हैं जिनके प्रचार प्रसार से जातिवाद उनर्मूलन की प्रेरणा मिलती हैं। यही इस सिक्के के दो पहलु हैं की दलितोद्धार के लिए दलितों पर अत्याचार के स्थान पर भेदभाव मिटाने वाली घटनाओं को प्रचारित किया जाना चाहिए।
— डॉ विवेक आर्य
आपके विचारों से सहमत हूँ। लेख प्रशंसनीय है। धन्यवाद।
अच्छा लेख. जातिगत विषमताओं को मिटाना उतना कठिन नहीं है जितना समझा जाता है. जरुरत केवल इस बात कि है कि हम सभी जाती-वर्गों के लोगों को मानव मानें. इतना करने से ही समस्याएं हल होने लगती हैं.
आर्य समाज और उसके अनेक संतों-कार्यकर्ताओं ने जातिभेद मिटाने का बड़ा कार्य किया है. लेकिन दुर्भाग्य से अब जातिगत आरक्षण के कारण जातिभेद स्थायी हो गया है और यह बीमारी धीरे धीरे नासूर बनती जा रही है.
पाठकों के ज्ञान के लिये : ब्राह्मण दूल्हे भी घोड़ी पर नहीं आते, हरिजन दूल्हों की तरह ही पालकी में आते हैं। समस्याएँ तभी पैदा होतीं हैं जब असलियत को दिखावे से छिपाने की कोशिश होती है।
इस घटना में गांव के ठाकुरों द्वारा दलित का घोड़े पर चढ़ने का विरोध किया गया है क्यूंकि उनका कहना हैं कि ठाकुरों के अलावा अन्य कोई घोड़े पर चढ़ने का अधिकारी नहीं हैं।