आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 50)
1993 का वर्ष हमारे लिए लगभग सामान्य रहा। मैं आर्थिक चिन्ताओं से मुक्त था और अपनी पत्नी तथा 2-3 साल के पुत्र दीपांक के साथ आनन्दपूर्वक दिन गुजार रहा था। बीच-बीच में हमारे रिश्तेदार वाराणसी घूमने आते रहते थे। उनके साथ हम सभी प्रमुख मन्दिर देखने तथा गंगास्नान करने अवश्य जाते थे। समय मिलने पर सारनाथ भी जाते थे। उस वर्ष दो घटनायें प्रमुख हुईं, जिनका उल्लेख करना आवश्यक समझता हूँ।
हमारा पुत्र दीपांक उस समय लगभग ढाई (वाराणसी की बोली में अढ़ाई) साल का था। अचानक वह बीमार पड़ गया। प्रारम्भ में उसे बुखार था और जाने क्या बीमारी थी कि कुछ भी खिलाने या पिलाने पर पलट देता था। ऐसी शिकायतों का प्राकृतिक चिकित्सा में सरल और रामवाण इलाज है और मुझे उसका पर्याप्त ज्ञान भी था, परन्तु श्रीमती जी उसको बच्चे पर आजमाने के लिए तैयार नहीं थीं। इसलिए मैंने भी अधिक जोर नहीं दिया और प्रचलित परम्परा के अनुसार शिशु रोग विशेषज्ञों को दिखाया। परन्तु जाने क्या बात हुई कि सभी बतायी गयी दवाएँ लेते रहने पर भी वह ठीक होने में नहीं आ रहा था और उसकी कमजोरी बढ़ती जा रही थी। एक दिन वह खुद हमसे बोला- ”मैं कैसे ठीक होऊँगा?“ हमने उसे तो किसी तरह समझा दिया, लेकिन अकेले में हम दोनों बहुत रोये।
सौभाग्य से तभी हमें एक ऐसे बाल रोग विशेषज्ञ के बारे मेें पता चला, जिनके बारे में बताया गया था कि वे बच्चों को बहुत कम दवाएँ देते हैं और सही दवा देकर ठीक कर देते हैं। हम उनके पास दीपांक को ले गये और ईश्वर की कृपा ऐसी हुई कि उनके इलाज से मात्र एक-दो सप्ताह में ही दीपांक पूरी तरह ठीक हो गया। वह लगभग दो महीने लगातार बीमार रहा था।
दीपांक अपनी चंचलता तथा अन्य कारणों से कई बार खतरे में पड़ा था, परन्तु मेरी सतर्कता और अपनी बुद्धि के बल पर हर बार बच जाता था। एक बार हम रिक्शे में कहीं से आ रहे थे। श्रीमती जी बगल में बैठी थीं और दीपांक मेरी गोद में लेटा था। उस समय वह केवल 6-7 महीने का था, इसलिए मेरे दोनों हाथ घिरे हुए थे। तभी हमारा रिक्शा आगे वाले रिक्शे से अचानक टकरा गया और हम गिरने लगे। श्रीमतीजी तो रिक्शे को पकड़कर गिरने से बच गयीं, परन्तु मेरे दोनों हाथ घिरे हुए थे, इसलिए मैं गिरने से नहीं बचा। परन्तु मैं आगे की तरफ गिरते-गिरते भी जानबूझकर इस प्रकार घूम गया कि मेरी पीठ और कोहनी सड़क से टकरायीं और छिल गयीं, परन्तु दीपांक मेरे सीने पर लगा हुआ एकदम सुरक्षित रहा। उसे खरोंच तक नहीं आयी।
एक बार वह दौड़ते हुए साँड़ के नीचे आते-आते बचा। वह मेरे पास खड़ा था और मैं अपने कुछ दोस्तों से बात कर रहा था। तभी एक दूधवाले ने एक साँड़ को मार कर भगाया, तो वह हमारी तरफ ही दौड़ता हुआ आया। दीपांक उसके सीधे रास्ते पर था। मैंने फुर्ती से दीपांक को अपनी ओर खींच लिया और साँड़ हमारे बगल से दौड़ता हुआ निकल गया। तब दीपांक लगभग 2 साल का था। इसी तरह एक बार अलमारी के ऊपर से एक अटैची अचानक गिर पड़ी। दीपांक ठीक उसी जगह खड़ा था, परन्तु अटैची को गिरते देखकर मैंने तत्काल उसे अपनी ओर खींच लिया। अगर मैं सतर्क न होता, तो अटैची सीधे उसके सिर पर गिरती।
जब वह केवल डेढ़-पौने दो साल का था, तो हमारे फ्लैट की बालकनी में लगे हुए ग्रिल पर काफी ऊपर चढ़ जाता था। उस ग्रिल में बाहर के तारों पर कपड़े सुखाने के लिए एक खिड़की भी थी। हम उस खिड़की को ताला लगाकर रखते थे। एक बार रात आठ-साढ़े आठ बजे जब मैं बालकनी में फोल्डिंग पलंग पर लेटा हुआ था और दीपांक रोज की तरह ग्रिल पर चढ़-उतर रहा था, तभी मेरी आँख लग गयी। थोड़ी देर बाद जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा कि ग्रिल की खिड़की बाहर की तरफ खुली पड़ी है और दीपांक मेरे सिरहाने सहमा-सहमा सा खड़ा हुआ है। यह समझना मुश्किल नहीं था कि किसी कारणवश खिड़की का ताला खुला रह गया होगा और जब दीपांक ग्रिल पर चढ़ रहा होगा तो खिड़की एकदम खुल गयी होगी और वह गिरते-गिरते बचा होगा। अगर वह खिड़की से नीचे गिर जाता, तो साढ़े तीन मंजिल की ऊँचाई से पक्की सड़क पर गिरने पर उसका बचना असम्भव ही था। हमारे बगल वाले मुसलमान परिवार की एक बच्ची इसी तरह गिर कर मर गयी थी। हम इसका अनुमान करके ही काँप गये और परमपिता को लाख-लाख धन्यवाद दिया कि उसने दीपांक को गिरने से बचा लिया। इस घटना के बाद हम और अधिक सावधान रहने लगे थे।
1993 की दूसरी प्रमुख घटना मेरी नौकरी से सम्बंधित थी। मुझे बैंक में कार्य करते हुए 5 वर्ष हो रहे थे और मुझे आशा थी कि मैं शीघ्र ही स्केल 3 में प्रोमोशन पाकर वरिष्ठ प्रबंधक हो जाऊँगा। उसके लिए इंटरव्यू काॅल भी आया और मैंने अच्छी तैयारी भी की। उस समय वहाँ श्री के.पी. राय अधिकारियों की यूनियन के बड़े नेता ही नहीं बल्कि अधिकारियों की तरफ से बैंक के बोर्ड में एक डायरेक्टर भी थे। उन्होंने भी मुझे आश्वासन दे रखा था कि मैं तुम्हारा प्रोमोशन जरूर करा दूँगा। इसलिए एक प्रकार से मैं निश्चिंत था।
नियत दिन पर मैं इंटरव्यू देने कोलकाता गया। मेरे दुर्भाग्य से वहाँ इंटरव्यू लेने वालों में एक श्री राधे रमण शर्मा भी थे, जो लखनऊ में हमारे सहायक महा प्रबंधक थे और जिन्होंने मेरा स्थानांतरण वाराणसी कराया था। वैसे मेरा इंटरव्यू ठीक हुआ था। अधिकांश सवालों के जवाब भी मैंने दे दिये थे और अपने द्वारा किये गये कार्यों के बारे में भी बताया था। परन्तु मेरा प्रोमोशन न होना था, न हुआ। सबका कहना था कि श्री आर.आर. शर्मा ने मेरा प्रोमोशन नहीं होने दिया। नेताजी श्री के.पी. राय भी कुछ नहीं कर पाये।
उस समय मुझे यह ज्ञात नहीं था कि जिन लोगों का प्रोमोशन किसी कारणवश नहीं हो पाता, वे चाहें तो चेयरमैन के पास अपील कर सकते हैं। अगर मुझे पता होता, तो मैं अवश्य अपील करता। मेरे सहयोगी अधिकारियों श्री अनिल कुमार श्रीवास्तव, श्री अतुल भारती और श्री संजय माथुर इन सभी को इस नियम की जानकारी थी, परन्तु उन्होंने जानबूझकर यह जानकारी मुझसे छिपा ली। हालांकि मेरे कार्यालय के ऐसे ही एक-दो अधिकारियों ने अपील की थी, परन्तु इस बात की भनक भी मुझे नहीं लगने दी गयी। मुझे आज भी इस सवाल के जवाब की तलाश है कि मेरे सहयोगी अधिकारियों ने यह बात मुझसे क्यों छिपायी।
खैर, अब वह समय बीत गया है। मुझे दुःख तो बहुत हुआ था, परन्तु नियति को स्वीकार कर लिया। मेरा प्रोमोशन इसके लगभग दो साल बाद 1995 के अन्त में हुआ था। इसकी कथा आगे लिखूँगा।
(जारी…)
किसी ने सत्य ही लिखा है
ठोकर नसीब की खाकर जो मुस्कुराए
इक रोज बढ़कर जिंदगी उसको गले लगाए
हार्दिक धन्यवाद, बंधु !
आदरणीय धन्यवाद
पूरा विवरण दत्तचित्त होकर पढ़ा। आप पर कई बार विपदाएँ आकर बिना कुछ हानि पहुंचाएं चली गई। मुझे लगता है कि इसका एक कारण आपका व परिवार के लोगो का प्रारब्ध और आपके इस जीवन के शुभ कर्म ही हो सकतें हैं। ईश्वर सदैव सबकी सहायता करता है परन्तु हमारे कर्मों का खाता शुभ कर्मो की पूंजी से भरा होना चाहिए। हार्दिक धन्यवाद। महोदय जी, तपोवन के अंतिम दिन के आयोजन का वृतांत भी अपलोड कर दिया है। यदि देख सकें तो कृपया देख लें।
बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर ! आपकी टिप्पणी कल नहीं देख सका क्षमा करें. आपका यह कहना सत्य है कि बड़ी बड़ी विपदाएं मेरे ऊपर आकर बिना हानि पहुंचाए लौट गयीं. यह प्रभु की कृपा और गुरुजनों का आशीर्वाद ही है. वैसे तो हस्त रेखा और ज्योतिष में मेरा विश्वास नहीं है, पर कई सज्जनों ने मेरी हस्त रेखाएं देखकर कहा था कि मेरा गुरु पर्वत बहुत प्रबल है, जिसके कारण बड़े बड़े संकट टल जाएंगे. इन वचनों की सत्यता का अनुभव मैंने अनेक बार किया है. उस प्रभु को कोटि कोटि नमन !
धन्यवाद महोदय। आपने जो लिखा वह सत्य हो सकता है। ईश्वर ही जान सकता है कि सत्य क्या है। एक सत्य विवरण लिख रहा हूँ, कृपया इसे जोक के रूप में ही लीजियेगा। मेरे एक मित्र श्री चद्र दत्त शर्मा जी थे जो ज्योतिषी थे। मेरे साथ एक ही ऑफिस में काम करते थे। उनके पिता श्री अमन सिंह शर्मा व एक छोटे भाई ज्योतिष की जीविका पर ही निर्वाह करते थे। उन्होंने एक सत्य घटना मुझे एक बार सुनाई। हम दोनों के एक मित्र श्री एल डी आहूजा के एक बार वह घर गए तो आहूजा दंपत्ति ने उन्हें कुछ भाग्य बताने के लिए कहा। शर्मा जी ने मुझे कहा था कि मनमोहन जी मेरा मूड नहीं था परन्तु वह आग्रह कर रहे थे। मैंने मजबूरी में उन्हें हाथ देखकर कहा कि तुम्हे अपने शत्रुओं से खतरा है, सावधान रहें। वह अति प्रसन्न हुए और उन दंपत्ति ने मेरी पसंद की रस मलाई आदि पदार्थ मुझे खिलाये। उन्होंने मुझे व्यंग में पूछा कि बताओ] अपने शत्रुओं से किसे खतरा नहीं होता। जब तक वह जीवित रहे हम इस घटना को याद कर हंस लिया करते थे। एक माह पूर्व उनकी पत्नी का भी अचानक देहांत हो गया। मेरा इनसे भाई बहन का गहरा रिश्ता था। वह शर्मा जी के सामने ही उनकी शिकायते किया करती थी। शर्मा जी इसका कभी बुरा नहीं मानते थे। एक बात और कह दू, उन्होंने मेरे पुत्री के बारे में जो भी भविष्यवाणी की वह सदैव सत्य निकली। आशा है कि आप इन सब बातों को सहजता से लेंगे। सादर। अंत में एक बात और याद आ गई. एक बार उनकी पत्नी का एक्सीडेंट हुआ। हाथ की हड्डी टूट गई। हम उनके घर देखने गए। भाभी जी बोली यह सबको उनका भाग्य बतातें हैं परन्तु इन्हे अपनी पत्नी का भाग्य पता नहीं। इन्होने मुझे कभी चेतावनी नहीं दी कि दुर्घटना हो सकती है और हाथ की हड्डी टूट सकती है। ऐसे और भी संस्मरण हैं।
हा हा हा … आपकी बात पढकर मुझे एक बात याद आ गयी। कानपुर में एक बड़े ज्योतिषी हैं जिनका नियमित ज्योतिष स्तम्भ दैनिक जागरण में छपता है। वे सबका भविष्य बताते हैं पर अपना और अपने परिवार का भविष्य उनको पता नहीं था। उनकी एक लड़की अपने प्रेमी के साथ भाग गयी थी। इस बात का कानपुर में बहुत मज़ाक़ बना था।
आपके कमेंट्स पढ़कर प्रसन्नता हुई। हार्दिक धन्यवाद।
विजय भाई , इस एपिसोड में जो दीपांक का लिखा है , मुझे भी वोह बातें याद हो आईं जिन का सम्बन्ध बचपन की तकलीफों से है . कितना कठिन होता है बचों को तकलीफ में देखना यह हम भली भाँती समझ सकते हैं . ज़ाहिर है हमारे माँ बाप ने भी यह सब कुछ देखा होगा . रही बात दीपांक के तीसरी मंजिल से गिरने की तो मैं यह जरुर लिखूंगा कि भारत में हम सेफ्टी का इतना खियाल नहीं करते . गाँव हमारे घर में यहाँ बिजली का मीटर था वोह बाहिर ही था , सिर्फ ऊपर एक शैल्फ ही थी और बहुत सी तारें इधर उधर बिखरी हुई थी . मैंने घर वालों को सेफ्टी के बारे में बोला लेकिन किसी ने धियान नहीं दिया . एक को जबरदस्त शौक भी लगा था पर किसी को परवाह ही नहीं . एक दफा तो दिली में ही हमारे रिश्तेदार के घर में नहाते वक्त बिजली का शौक लग गिया , लेकिन बच गिया . जो आप ने प्रोमोशन के बारे में लिखा , उस में आप के साथिओं को जैलस ही थी , ऐसा मेरा विशवास है .
सही कहा, भाई साहब, आपने. भारत में सुरक्षा पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है.